________________
तैत्तिरीय ब्राह्मण ]
(२०५ )
[त्रिपुरविजय चम्पू
तैत्तिरीय ब्राह्मण-यह 'कृष्ण यजुर्वेदीय' शाखा का ब्राह्मण है। इसमें तीन अध्याय हैं । यह तैत्तिरीय संहिता से भिन्न न होकर उसका परिशिष्ट ज्ञात होता है। इसका पाठ स्वरयुक्त उपलब्ध होता है जिससे इसकी प्राचीनता सिद्ध होती है। इसके अध्यायों को काण्ड कहा जाता है। प्रथम एवं द्वितीय काण्ड में अध्याय या प्रपाठक हैं एवं तृतीय में १३ अध्याय हैं । तैत्तिरीय संहिता में न हुए कई यज्ञों का विधान इस ब्राह्मण में किया गया है तथा संहिता में प्रतिपादित यज्ञों की प्रयोग विधि का विस्तारपूर्वक वर्णन है। इसके प्रथम काण्ड में अग्न्याधान, गवामयन, वाजपेय, सोम, नक्षत्रवेष्टि एवं राजसूय का वर्णन है तथा द्वितीय में अग्निहोत्र, उपहोम, सोत्रमणि, बृहस्पतिसव, वैश्यसव आदि अनेकानेक सवों का विवरण है। इसमें 'ऋग्वेद' के अनेक मन्त्र उद्धृत हैं और अनेक नवीन भी हैं। तृतीय काण्ड की रचना अवान्तरकालीन मानी गई है। इसमें सर्वप्रथम नक्षत्रेष्टि का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है और 'सामवेद' को सभी वेदों में शीर्ष स्थान प्रदान कर मूत्ति और वैश्य की उत्पत्ति ऋक से, गति एवं क्षत्रिय की उत्पत्ति यजुष से एवं ज्योति और ब्राह्मण को उत्पत्ति सामवेद से बतलाई गई है। ब्राह्मण की उत्पत्ति होने के कारण सामवेद का स्थान सर्वोच्च है। अश्वमेध का विधान केवल क्षत्रिय राजाओं के लिए किया गया है तथा इसका वर्णन बड़े विस्तार के साथ है। इसमें शूद्र को यज्ञ के लिए अपवित्र मान कर उसके द्वारा दुहे गए गाय के दूध को यज्ञ के लिए अग्राह्य बतलाया गया है। पुराणों की कई ( अवतार सम्बन्धी) कथाओं के संकेत यहाँ हैं तथा वराह अवतार का स्पष्ट उल्लेख है । इसमें वैदिक काल के अनेक ज्योतिषविषयक तथ्य भी उल्लिखित हैं। इसका प्रथम प्रकाशन एवं सम्पादन आर० मित्र द्वारा हुआ था। (बिब्लोथिका इण्डिका में १८५५-७०) आनन्दाश्रम सीरीज, पूना से १९९८ में प्रकाशित तथा श्री एन० गोडबोले द्वारा सम्पादित । श्री सामशास्त्री सम्पादित, मैसूर १९२१ ।
त्रिपुरविजय चम्पू-(द्वितीय)-इस चम्पू काव्य के रचयिता नृसिंहाचार्य थे। ये तंजोर के भोंसलानरेश एकोजि के अमात्यप्रवर थे । भारद्वाज गोत्रोत्पन्न आनन्द यज्वा इनके पिता थे। 'त्रिपुरविजयचम्पू साधारण कोटि का काव्य है जिसमें कुल ३८ श्लोक हैं । यह रचना अभी तक अप्रकाशित है तथा इसका विवरण तंजोर कैटलाग संख्या ४०३६ में प्राप्त होता है। इसका समय सोलहवीं शताब्दी के मध्य के आसपास रहा होगा। प्रारम्भ में गणेश एवं शिव की वन्दना करने के पश्चात् कैलाश पर्वत का वर्णन किया गया है । इसमें त्रिपुरदाह की पौराणिक कथा का संक्षेप में वर्णन है। इसका अन्तिम श्लोक इस प्रकार है
ब्रह्मादयोपि ते सर्वे प्रणम्य परमेश्वरम् ।
तदाज्ञां शिरसा धृत्वा स्वं स्वं धाम प्रपेदिरे ॥ ३८ ॥ आधार ग्रन्थ-चम्पू काव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-डॉ. छविनाथ त्रिपाठी।