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दक्षस्मृति ]
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[दण्डी
आधारग्रन्थ-१. संस्कृत-कवि-दर्शन-डॉ० भोलाशंकर व्यास २. संस्कृत सुकवि समीक्षा-पं. बलदेव उपाध्याय ३. नलचम्पू-हिन्दी टीका सहित-चौखम्बा प्रकाशन ।
दक्षस्मृति-इस स्मृति के रचयिता दक्ष नामक ऋषि हैं। इनका उल्लेख याज्ञवल्क्यस्मृति में भी हुआ है तथा विश्वरूप, मिताक्षरा एवं अपराक ने दक्षस्मृति के उधरण दिये हैं। जीवानन्दसंग्रह में उपलब्ध 'दक्षस्मृति' में ७ अध्याय तथा २२० श्लोक हैं। इसमें वणित विषयों की सूची इस प्रकार है-चार आश्रम का वर्णन, ब्रह्मचारियों के दो प्रकार, द्विज के आह्निक धर्म, कर्मों के विविध प्रकार, नौ प्रकार के कर्मों का विवरण, नौ प्रकार के विकर्म, नौ प्रकार के गुप्तकर्म, खुलकर किये जाने वाले नो कम, दान में न दिये जाने वाले पदार्थ, दान, अच्छी पत्नी की स्तुति, शौच के प्रकार, जन्म एवं मरण के समय होने वाले अशौच का वर्णन, योग तथा उसके षडंग, साधुओं द्वारा त्याज्य आठ पदार्थों का वर्णन । दक्षकृत निम्नांकित दो श्लोक अत्यन्त प्रचलित हैं।
सामान्यं याचितं न्यस्तमाधिराश्च तदनम् । अन्वाहितं च निक्षेपः सर्वस्वं चान्वये सति ।। आपत्स्वपि न देयानि नव वस्तूनि पण्डितः।
यो ददाति स मूढात्मा प्रायश्चित्तीयतेनरः ।। आधारग्रन्थ-धर्मशास्त्र का इतिहास (खण्ड १)-ॉ० पी० वी० काणे हिन्दी बनुवाद ।
दत्तात्रेय चम्पू-इस चम्पू काव्य के रचयिता दत्तात्रय कवि हैं। इनका समय सत्रहवीं शताब्दी का अन्तिम चरण है। इनके पिता का नाम वीरराघव एवं माता का नाम कुप्पमा था। ये मीनाक्ष्याचार्य के शिष्य थे। इस चम्पू काव्य में विष्णु के अवतार दत्तात्रेय का वर्णन किया गया है जो तीन उल्लासों में समाप्त हुआ है। काव्य का मंगलाचरण गणेश की वन्दना से हुआ है। इसकी रचना साधारण कोटि की है और अन्य अभी तक अप्रकाशित है। इसका विवरण डी० सी० मद्रास १२३००० में प्राप्त होता है।
भजे गनाननं चित्ते प्रत्यूहविनिवृत्तये । देवासुरमृधे स्कन्दो यमंचति सतीसुतम् ॥ ११ ॥ दत्तात्रेयोदयकथामधिकृत्य गरीयसीम् ।
दत्तात्रेयकविचक्रे चम्पूकाव्यमनुत्तमम् ॥ १॥५॥ आधारग्रन्थ-चम्पू काव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-डॉ. छविनाथ त्रिपाठी।
दण्डी-महाकवि दण्डी संस्कृत के सुप्रसिद्ध गद्यकाव्यकार है। किंवदन्ती की परम्परा के अनुसार उन्होंने तीन प्रबन्धों की रचना की थी। इनमें एक 'दशकुमारचरित' है और दूसरा 'काव्यादर्श'। तीसरी रचना के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। पिशेल ने बताया है कि तीसरी कृति 'मृच्छकटिक' ही है जो भ्रमवश यह शतक
१४ सं० सा०