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विष्णुधर्मोत्तरपुराण ]
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[ विष्णुधर्मोत्तरपुराण
पत्नी सुलोचना का वृत्त वर्णित है। कवि ने शैली की प्राचीन पद्धति न अपनाकर आधुनिक शैली का अनुगमन किया है। पक्षिव्रजानां कलकूजनेन, यथा बनान्तं मुखरं बभूव । कक्षाश्च सर्वेऽपि तथा गृहाणां वालेहंसद्भिः मुखरा बभूवुः ॥ सौलोचनीय १३३ ।
विष्णुधर्मोत्तरपुराण--इसको गणना १८ उपपुराणों में होती है। यह भारतीय कला का विश्वकोश है जिसमें वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला एवं अलंकारशास्त्र का वर्णन किया गया है । "विष्णुधर्मोत्तरपुराण' में नाट्यशास्त्र तथा काव्यालंकारविषयक एक सहस्र श्लोक हैं। इसके चार अध्याय १८, १९, ३२, ३६-गद्य में लिखे गए हैं जिनमें गीत, मातोद्य, मुद्राहस्त तथा प्रत्यङ्गविभाग का वर्णन है। इसके जिस अंश में चित्रकला, मूर्तिकला, नाट्यकला तथा काव्यशास्त्र का वर्णन है उसे चित्र. सूत्र कहा जाता। इसका प्रकाशन वेंकटेश्वर प्रेस बम्बई से शक सं० १८३४ में हुआ है तथा चित्रकला वाले अंश का हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशन, हिन्दी साहित्यसम्मेलन, प्रयाग की सम्मेलन पत्रिका के 'कला अंक' में किया गया है । इसका प्रारम्भ बज और मार्कण्डेय के संवाद से होता है। मार्कण्डेय के अनुसार 'देवता की उसी मूर्ति में देवत्व रहता है जिसकी रचना चित्रसूत्र के आदेशानुसार हुई है तथा जो प्रसन्नमुख है।' संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास-काणे पृ० ८३ । चित्रसूत्रविधानेन देवताची विनिर्मिताम् । सुरूपां पूजयेद्विद्वान् तत्र संनिहिता भवेत् ॥ १७। इसके द्वितीय अध्याय में यह भी विचार व्यक्त किया गया है कि बिना चित्रसूत्र के ज्ञान के 'प्रतिभालक्षण' या मूर्तिकला समझ में नहीं आ सकती तथा बिना नृतशास्त्र के परिज्ञान के चित्रसूत्र समझ में नहीं आ सकता । नृत्त वाद्य के बिना संभव नहीं तथा गीत के बिना वाद में भी पटुता नहीं आ सकती। विना तु नृत्तशास्त्रेण चित्रसूत्रं सुदुर्विदम् । मातोधन बिना नृत्तं वियते न कथंचन । न गीतेन विना शक्यं ज्ञातुमातोद्यमप्युत ॥' इसके तृतीय अध्याय में छन्द वर्णन तथा चतुर्थ अध्याय में 'वाक्य परीक्षा' की चर्चा की गयी है। पंचम अध्याय के विषय है अनुमान के पांच अवयव, सूत्र की ६ व्याख्याएं, तीन प्रमाण (प्रत्यक्षानुमानाप्तवाक्यानि) एवं इनकी परिभाषाएं, स्मृति, उपमान तथा मर्यापत्ति । षष्ठ अध्याय में 'तन्त्रयुक्ति' का वर्णन है तथा सप्तम अध्याय में विभिन्न प्राकृतों का वर्णन ११ श्लोकों में किया गया है। अष्टम अध्याय में देवताओं के पर्यायवाची शब्द दिये गए हैं तथा नवम् और दशम् अध्यायों में भी शब्दकोश है। एकादश, द्वादश एवं त्रयोदश अध्यायों में लिङ्गानुशासन है तथा प्रत्येक अध्याय में १५ श्लोक हैं। चतुदशं अध्याय में १७ अलंकारों का वर्णन है।
पंचदश अध्याय में काव्य का निरूपण है जिसमें काव्य एवं शास्त्र के साथ अन्तर स्थापित किया गया है। इसमें काव्य में ९ रसों की स्थिति मान्य है। षोडश अध्याय में केवल पन्द्रह श्लोक हैं जिनमें २१ प्रहेलिकाओं का विवेचन है । सप्तदश अध्याय में रूपक-वर्णन है तथा उनकी संख्या १२ कही गयी है । इसमें कहा गया है कि नायक की मृत्यु, राज्य का पतन, नगर का अवरोध एवं युद्ध का साक्षात प्रदर्शन नहीं होना चाहिए, इन्हें प्रवेशक द्वारा वार्तालाप के ही रूप में प्रकट कर देना चाहिए। इसी अध्याय में आठ प्रकार की नायिकाओं का विवेचन किया गया है। [श्लोक संख्या