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गीता }.
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[ गीता
जब श्रीकृष्ण ने अर्जुन के रथ को रणक्षेत्र के मध्य लाकर खड़ा किया और दोनों ओर सेभेरी, मृदंग आदि की तुमुल ध्वनि होने लगी तो अर्जुन दोनों दल के व्यक्तियों को देखकर, जिसमें अपने ही वंश के लोग लड़ने के लिए प्रस्तुत थे, सोचने लगे कि यह युद्ध अनुचित तथा अपने वंश का संहार करने वाला है। उनके सामने यही समस्या उत्पन्न हुई कि मैं युद्ध करूं या न करूँ । इसी विषम समस्या के समाधान के रूप में गीता का उदय हुआ है। इसकी रचना श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद के रूप में हुई है । कृष्ण ने अर्जुन के मन में उत्पन्न भ्रम का आध्यात्मिकं समाधान प्रस्तुत कर उन्हें युद्ध में प्रवृत्त किया तथा इस कार्य के लिए ऐसी उक्तियाँ प्रस्तुत कीं जिनका प्रभाव उनके मन पर स्थायी रहा । श्रीकृष्ण ने तत्वज्ञान प्रस्तुत किया तथा नैतिक दृष्टि से का अमरत्व प्रतिपादित करते हुए श्रीकृष्ण
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गीता के माध्यम से जीवन का मनोहर युद्ध की अनिवार्यता सिद्ध की। आत्मा कहा कि "जो पुरुष आत्मा को मरनेवाला समझता है, और जो इसे मरा मानता है, वे दोनों ही जानते नहीं; आत्मा मरता है, न २।१९ ।। यदि आत्मा सदा जन्म-मरण के बन्धन में फँसा है, तो कारण नहीं, मरना तो इन सबको है ही, थोड़े समय का आगे पीछे २।२६ ।
मारा जाता है । भी मृत्यु शोक का का भेद ही है । "
गीता का अध्यात्मपक्ष - गीता में ब्रह्म के सगुण एवं निर्गुण उभय रूपों का वर्णन है तथा दोनों को अभिन्न माना गया है
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ।। १३।१४ ॥
इसमें ब्रह्मतत्व का विवेचन उपनिषदों के ही समान है तथा एक मात्र ब्रह्म की ही मूलसत्ता स्वीकार की गयी है । ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी हो रहा है वह सब ब्रह्म की ही मूलसत्ता स्वीकार की गयी है । ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी हो रहा है वह सव ब्रह्म की ही शक्ति से हो रहा है । श्रीकृष्ण ने अपने को ब्रह्म से अभिन्न बतलाया है । ब्रह्म सत् है, असत् है और सत् तथा असत् से परे भी है - सदसत् तत्परं यत् ११३७ । वह भूतों के बाहर एवं भीतर दोनों स्थानों पर है तथा चर, अचर, दूरस्थ एवं अन्तिकस्थ है१३।१५ | भगवान् जगत् की उत्पत्ति तथा लयस्थान है वह समस्त प्राणियों में निवास करता है | भगवान में सारा जगत् अनुस्यूत हैं। इसमें भगवान् के दो भाव कहे गए हैं- अपर तथा पर। जब ईश्वर एक ही भाव से, एक ही अंश से योगमाया से युक्त रहकर जगत् में अभिव्यक्त होता है या एक अंश से ही जगत् में व्याप्त रहता है तो उसे अपर भाव या विश्वानुग रूप कहा जाता है । 'परन्तु भगवान् केवल जगन्मात्र नहीं है, प्रत्युत् वह इसे अतिक्रमण करने वाले भी हैं। यह उनका वास्तव रूप है । इस अनुत्तम, अव्यक्तरूप का नाम है - परभाव, विश्वातिगः रूप ।" भारतीय दर्शन पृ० ९८ । गीता के अनुसार ब्रह्म ऐसी अनन्त सत्ता है जो सभी सीमित पदार्थों में आधार रूप से विद्यमान है और उनमें जीवन का संचार करती है |
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जीवतत्व - जीव चैतन्य है और वह परमात्मा की पराप्रकृति या उत्कृष्ट विभूति है । कृत कर्मों का फल धारण करने के कारण इसे 'क्षेत्र' कहते हैं तथा क्षेत्र का