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राजशेखर ]
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[ राजशेखर
रचयितुं वाचं सतां संमतां, व्युत्पत्ति परमामवाप्तुमवधि लब्धुं रसस्रोतसः । भोक्तुं स्वादु फलं च जीविततरोर्यद्यस्ति ते कौतुकं तद् भ्रातः शृणु राजशेखरकवेः सूक्तः सुधास्यन्दिनीः । शङ्करवर्मणः । सदुक्तिकर्णामृत ५।२७।३ । ३. समाधिगुणशालिन्यः प्रसन्नपरिपक्त्रिमाः । यायावर कवेर्वाचो मुनीनामिव वृत्तयः ॥ धनपाल तिलकमंजरी ३३ । ४. स्वयं कवि की अपने सम्बन्ध में उक्ति - कर्णाटी- दशनाङ्कितः शिवमहाराष्ट्री कटाक्षाहतः प्रौढान्धीस्तनपीडितः प्रणयिनीभ्रूभङ्गविश्वासितः । लाटीबाहुविवेष्टितश्च मलयस्त्रीतर्जनीतजितः सोयं संप्रति राजशेखरकविः वाराणसीं वान्छति ॥
राजशेखर की अबतक दस रचनाओं का पता चला है, जिनमें चार रूपक, पांच प्रबन्ध एवं एक काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ है । इन्होंने स्वयं अपने षट्प्रबन्धों का संकेत किया है -- विद्धिनः षट् प्रबन्धाम् -- बालरामायण १।१२ । इन प्रबन्धों में पांच प्रबन्ध प्रकाशित हो चुके हैं तथा एक 'हरविलास' का उद्धरण हेमचन्द्ररचित 'काव्यानुशासन' में मिलता है । 'काव्यमीमांसा' इनका साहित्यशास्त्र विषयक ग्रन्थ है । चार नाटकों के नाम हैं‘बालरामायण', ‘बालमहाभारत', 'विद्धशाल मज्जिका' एवं 'कर्पूरमंजरी' । १ बालरामायण – इसकी रचना १० अंकों में हुई है तथा राम कथा को नाटक का रूप दिया गया है [ दे० बालरामायण ]। २. बालमहाभारत - इसका दूसरा नाम 'प्रचंडपाण्डव' भी है । इसमें महाभारत की कथा का वर्णन है । इसके दो प्रारम्भिक अंक ही उपलब्ध हैं [ दे० बाल महाभारत ]। ३. विद्धशालमब्जिका - यह चार अंकों की नाटिका है जिसमें लाट के सामन्त रामचन्द्रवर्मा की पुत्री मृगाङ्कावली का सम्राट् विद्याधर म के साथ विवाह होने का वर्णन है [ दे० विद्धशालभंजिका ] । ४. कर्पूरमंजरी - इसकी रचना चार यवनिकांतरों में हुई है, अतः यह भी नाटिका ही है, पर सम्पूर्ण रचना प्राकृत में होने के कारण इसे सट्टक कहा जाता है ।
राजशेखर ने स्वयं अपने को कविराज कहा है और महाकाव्य के प्रति आदर का भाव प्रकट किया है। ये भूगोल के भी महाज्ञाता थे भूगोल - विषयक 'भूवन कोष' नामक ग्रन्थ की भी रचना की थी, किन्तु ग्रन्थ अनुपलब्ध है, और इसकी सूचना 'काव्यमीमांसा' में प्राप्त होती है। बहुभाषाविज्ञ थे । इन्होंने कविराज उसे कहा है जो समान अधिकार के साथ अनेक भाषाओं में रचना कर सके। इन्होंने स्वयं अनेक भाषाओं में रचना की थी । इनकी उक्ति ध्यातव्य है - गिरः श्रव्या दिव्याः प्रकृतिमधुराः प्राकृतधुराः सुभण्ष्योऽपभ्रंशः सरसरचनं भूतवचनम् । विभिन्नाः पन्थानः किमपि कमनीयाश्च त इमे निबद्धा यस्त्वेषां स खलु निखिलेऽस्मिन् कविवृषा ॥ राजशेखर की रचनाओं के अध्ययन से ज्ञात होता है। कि वे नाटककार की अपेक्षा कवि के रूप में अधिक सफल हैं । 'बालरामायण' की विशालता उसे अभिनेय होने में बाधक सिद्ध होती है । इन्होंने प्रदर्शन कर इस नाटक में अपनी अद्भुत काव्य-क्षमता का परिचय गुण उसके नाटकीय रूप को नष्ट कर देने वाला सिद्ध होता है । 'बालरामायण' में
वर्णन चातुरी का दिया है, पर यही
कुल ७४१ पच हैं तथा 'इनमें भी २०० पद्य शार्दूलविक्रीडित स्रग्धरावृत्त में हैं । अन्तिक अंक में कवि ने १०५ पद्यों में
प्रणेताओं के और इन्होंने
सम्प्रति यह
राजशेखर
छन्द में एवं ८६ पद्म रामचन्द्र के अयोध्या