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जैन साहित्य]
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[जैन साहित्य
और अजीव, जिनमें परस्पर सम्पर्क रहता है। परस्पर सम्पर्क के द्वारा ही जीव को माना प्रकार की शक्तियों का अनुभव होता है । प्रत्येक सजीव द्रव्य में जीव की स्थिति विद्यमान रहती है, चाहे उसका रूप कोई भी क्यों न हो। इसलिए जैन लोग अहिंसा तत्व पर अधिक बल देते हैं । जैनमत अनेकान्तवाद एवं स्यावाद का पोषक है। यह अन्य मतों के प्रति भी आदर का भाव रखता है जिसका कारण उसका अनेकान्तवादी होना ही है। अनेकान्तवाद बतलाता है कि वस्तु में अनेक प्रकार के धर्म निहित रहते हैं। इसे अवैदिक दर्शन कहा जाता है, क्योंकि इसके अनुसार वेदों की प्रामाणिकता अमान्य है।
ज्ञानमीमांसा जैनमत में जीव को चैतन्य माना गया है और उसकी उपमा सूर्य से दी गयी है। जिस प्रकार सूर्य के प्रकार से सूर्य भी प्रकाशित होता है, उसी प्रकार आत्मा या चैतन्य के द्वारा अन्य पदार्थ को प्रकाशित होते ही हैं, वह अपने को को भी प्रकाशित करता है। इसमें जीव को अनन्त ज्ञानविशिष्ट माना गया है, पर कर्मों के आवरण में उसका शुद्ध चैतन्य रूप छिपा रहता है। ज्ञान के दो प्रकार हैप्रत्यक्ष एवं परोक्ष । आत्मसापेक्ष ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान होता है और इन्द्रिय तथा मन के द्वारा प्राप्त ज्ञान परोक्ष कहा जाता है। प्रत्यक्ष ज्ञान की उपलब्धि में आत्मा स्वयं कारण बनती है और उसके लिए अन्य पदार्थों की भावश्यकता नहीं पड़ती। परोक्ष शान के दो प्रकार हैं-मति तथा श्रुत जो इन्द्रिय तथा मन की सहायता से ही उत्पन्न होते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान के तीन भेद हैं-अवधि, मनःपर्याय और केवल । ये केवल आत्मा की योग्यता से ही उत्पन्न होते हैं, इनके लिए इन्द्रिय और मन की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। मति-जब इन्द्रिय और मन की सहायता से ज्ञान का विषय उत्पन्न हो तो उसे 'मतिज्ञान' कहते हैं। इसे स्मृति, संज्ञा, चिन्ता तथा समुद्भूत मान भी कहते हैं । मति ज्ञान भी दो प्रकार का होता है-इन्द्रियजन्य एवं अनिन्द्रिय । बाह्य इन्द्रियों के द्वारा समुद्भूत ज्ञान इन्द्रियजन्य एवं मानस ज्ञान अनिन्द्रियजन्य होता है। जो शब्द शान से उत्पन्न होता है उसे 'श्रुतज्ञान' कहते हैं। मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान में अन्तर यह है कि प्रथम की स्थिति केवल विद्यमान पदार्थ में ही होती है, जब कि द्वितीय भूत, भविष्य एवं वर्तमान त्रैकालिक विषयों में होता है। अवधि शान में दूरस्थ, सूक्ष्म तथा बस्पष्ट द्रव्यों का भी ज्ञान होता है, इससे परिमित पदार्थों का ही ज्ञान प्राप्त होता है । अपने कर्मों को अंशतः नष्ट करने पर मनुष्य को ऐसी शक्ति प्राप्त होती है जिससे कि वह दूरस्थ सूक्म वस्तुओं का भी ज्ञान प्राप्त कर लेता है। मनःपर्याय उस ज्ञान को कहते हैं जब मनुष्य अन्य व्यक्तियों के विचारों को जान सकें। बह राग-द्वेषादि मानसिक बाधाओं को जीत कर ऐसी स्थिति में आ जाता है कि दूसरे के भूत एवं पतंमान विचार भी जाने जा सकते हैं। केवल शान-यह ज्ञान केवल मुक्त जीव को ही होता है। इसमें ज्ञान के बाधक सभी कार्य नष्ट हो जाते हैं तब बनन्त मान की प्राप्ति होती है । जैन मत में प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द तीनों ही प्रमाण स्वीकृत है । प्रत्यक्ष तो सर्वमान्य है ही, लोकव्यवहार की दृष्टि से इन्होंने अनुमान को भी प्रामाणिक स्वीकर किया है।