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चैतन्यमत]
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[चैतन्यमत
में हुआ था ( १४८५-१५३३ ई.)। चैतन्य महाप्रभु पर जयदेव एवं विद्यापति के गीतों का बहुत बड़ा प्रभाव था। इनका नाम विश्वम्भर मिश्र था। इन्होंने नदिया (पूर्व बंगाल) के प्रसिद्ध विद्वान् गंगादास से विद्याध्ययन किया था। इनकी कोई रचना नहीं मिलती पर 'दशमूलश्लोक' को इनके शिष्यों ने इनकी रचना माना है । चैतन्य महाप्रभु के दो प्रसिद्ध शिष्यों-रूपगोस्वामी एवं जीवगोस्वामी ने प्रामाणिक शास्त्रीय ग्रन्थों की रचना कर इस सम्प्रदाय के विचारों की प्रतिष्ठा की। रूपगोस्वामी ने 'उज्ज्वलनीलमणि' एवं 'भक्तिरसामृतसिन्धु' नामक भक्तिरसविषयक प्रौढ़ ग्रन्थों की रचना की है। [दे० रूपगोस्वामी] रूपगोस्वामी के ज्येष्ठ भ्राता श्री सनातन ने 'वृहद्भागवतामृत' श्रीमनागवत के दशम स्कन्ध की 'वैष्णवतोषिणी' नामक टीका लिखी तथा 'हरिभक्तिविलास' गौडीयवैष्णवमत के सिद्धान्त एवं आचार दर्शन का प्रतिपादन किया। जीवगोस्वामी द्वारा रचित 'भागवतसन्दर्भ अचिन्त्यभेदाभेद का सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थ माना जाता है। इस सम्प्रदाय के अन्य आचार्यों में विश्वनाथ चक्रवर्ती ( १७वीं शताब्दी ) का नाम विशेषरूप से उल्लेख्य है। उन्होंने श्रीमद्भागवत की 'सारार्थदर्शिनी' टीका लिखी है।
चैतन्यमत 'गौडीयवैष्णव' मत के भी नाम से प्रसिद्ध है। इसमें राधाकृष्ण की उपासना की प्रधानता है और राधा कृष्ण की प्रेमिका के रूप में चित्रित हैं । इस मत में परकीयाभाव की भक्ति पर अधिक बल दिया गया है। माध्वमत से प्रभावित होते हुए भी चैतन्यमत की दार्शनिक दृष्टि भिन्न है । इसके सिद्धान्त को अचिन्त्यभेदाभेद कहते हैं । इसके अनुसार भगवान् श्रीकृष्ण परमतत्व हैं एवं उनकी शक्तियां अनन्त हैं। शक्ति
और शक्तिमान में न तो परस्पर भेद है और न अभेद । इनका सम्बन्ध तक से सिख नहीं किया जा सकता । वह अचिन्त्य है ।
एकत्वं च पृथक्त्वं च ताक्षत्वमुतांशिता । तस्मिन्नेकत्र नायुक्तम् अचिन्त्यानन्तशक्तितः॥
लघुभागवतामृत ११५० इस मत में ब्रजाधिपति के तनय ( नन्दसुत ) भगवान श्रीकृष्ण को आराध्य माना जाता है जिनका धाम वृन्दावन है । इनकी तीन लीलाएँ हैं-वृन्दावनलीला, मथुरालीला तथा द्वारिकालीला। इनमें प्रथम की मान्यता अधिक है, क्योंकि यहां की लीला गोपिकाओं के साथ सम्पन्न होने के कारण माधुर्यपूर्ण है। इस लीला को छोड़कर भक्त नीरस लीला की ओर प्रवृत्त नहीं होता। वृन्दावनधाम माधुयं की खान तथा आनन्द का निकेतन है। चैतन्यमत्त में ब्रजगोपिकाओं के द्वारा की गयी उपासना ही मुख्य आधार है जिसका बीज रागात्मिका या अनुरागमूलक भक्ति है। यह उपासना अहेतुकी एवं स्वार्थरहित है। रुक्मिणी आदि पटरानियों की उपासना वैधी भक्ति की उपासना है जिसमें हृदय का अनुराग कम एवं विधिविधान का प्राधान्य है। इस मत में 'श्रीमद्भागवत' को ही उत्तम शास्त्र माना गया है चार पुरुषार्थों की मान्यता हैधर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष,-पर चैतन्य ने पंचम पुरुषार्थ प्रेमा को अधिक महत्त्व प्रदान किया है। इसकी प्राप्ति मानव जीवन की परम उपलब्धि है। चैतन्यमत