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रूपगोस्वामी ]
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पूर्ण साम्य रखते हैं अतः एक ही रचयिता के लिए एक ही विषय का दो बार लिखना युक्तिसंगत नहीं है । ख - ' - 'शृङ्गारतिलक' में नो रसों का वर्णन है जब कि रुद्रट ने प्रेयान् नामक नवीन रस का निरूपण कर दश रसों का विवेचन किया है । रुद्रट ने उद्भट के अनुकरण पर पांच वृत्तियों का निरूपण किया है— मधुरा, प्रौढ़ा, परुषा, ललिता एवं भद्रा । जब कि रुद्रभट्ट कैशिकी आदि चार वृत्तियों का ही वर्णन करते हैं । - नायक-नायिकाभेद के निरूपण में भी दोनों में पर्याप्त भेद है । रुद्रभट ने नायिका तृतीय प्रकार वेश्या का बड़े मनोयोग के साथ विस्तृत वर्णन किया है किन्तु रुद्रट ने केवल दो ही श्लोक में इसका चलता हुआ वर्णन कर इसके प्रति तिरस्कार का भाव व्यक्त किया है । ङ–रुद्रट एक महनीय आचार्य के रूप में आते हैं । जिन्होंने 'काव्यालंकार' में काव्य के सभी अंगों का विस्तृत विवेचन किया है, पर रुद्रभट्ट की दृष्टि परिमित है और वे काव्य के एक ही अंग रस का वर्णन करते हैं। इनका क्षेत्र संकुचित है और वे मुख्यतः कवि के रूप में दिखाई पड़ते हैं ।
आधारग्रन्थ - १. भारतीय साहित्यशास्त्र भाग १ - आ० बलदेव उपाध्याय । २. शृङ्गारतिलक - हिन्दी अनुवाद - पं० कपिलदेव पाण्डेय प्राच्य प्रकाशन, वाराणसी १९६८ । ३. संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास- डॉ० पा० वा० काणे ।
[ रूपगोस्वामी
रूपगोस्वामी -- भक्ति एवं रसशास्त्र के आचार्यं । ये प्रसिद्ध वैष्णव एवं चैतन्य महाप्रभु के शिष्य हैं । इन्होंने वैष्णव दृष्टि से ही अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया है । इनके मूलवंशज कर्नाटक ब्राह्मण थे और चौदहवीं शती के अन्तिम या पन्द्रहवीं शताब्दी के आदि चरण में बंगाल में आकर रह रहे थे। ये भारद्वाजगोत्रीय ब्राह्मण थे । इनके पिता का नाम श्रीमार और पितामह का नाम श्री मुकुन्द था । रूपगोस्वामी के अन्य दो भाई भी थे जिनका नाम सनातन एवं अनुपम था । सनातन गोस्वामी तथा रूपगोस्वामी दोनों ही प्रसिद्ध वैष्णव आचार्य हैं। बंगाल में इनकी जन्मभूमि का नाम जाकर बस गए।
वफल था । वहाँ से ये महाप्रभु चैतन्य की प्रेरणा से वृन्दावन में रूपगोस्वामी ने १७ ग्रन्थों की रचना की है जिनमें ८ ग्रन्थ अत्यन्त महत्वपूर्ण हैंहंसदूत ( काव्य ), उद्भव - सन्देश ( काव्य ), विदग्धमाधव ( नाटक), ललितमाधव (नाटक), दानकेलिकौमुदी, भक्तिरसामृत सिन्धु, उज्ज्वलनीलमणि एवं नाटकचन्द्रिका | इनमें से अन्तिम तीन ग्रन्थ काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ हैं । इन्होंने 'विदग्धमाधव' का रचनाकाल १५३३ ई० दिया है । इनका समय १४९० से लेकर १५५३ ई० तक है। चैतन्य महाप्रभु का समय १५ वीं शताब्दी का अन्तिम शतक है । अतः रूपगोस्वामी का उपर्युक्त समय ही उपयुक्त ज्ञात होता है । इनके द्वारा रचित अन्य ग्रन्थों की सूची इस प्रकार है—- लघुभाक्वतामृत, पद्यावली, स्तवमाला, उत्कलिकामन्जरी, आनन्द महोदधि, मथुरामहिमा, गोविन्दविरुदावली, मुकुन्दमुक्तावली तथा अष्टादशछन्द | रूपगोस्वामी की महत्ता तीन काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों के ही कारण अधिक है ।
माना जाता
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१. भक्तिरसामृत सिन्धु - यह ग्रंथ 'भक्तिरस' का अनुपम ग्रन्थ है । इसका विभाजन चार विभागों में हुआ है और प्रत्येक विभाग अनेक लहरियों में विभक्त है । पूर्वविभाग में भक्ति का सामान्य स्वरूप एवं लक्षण प्रस्तुत किये गए हैं तथा दक्षिण विभाग में भक्ति रस