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वैदिक देवता ।
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_ [वैदिक देवता
देवता अपने भौतिक आधार से ही सम्बद्ध हैं और उनका मूतं स्वरूप मानवीय है। उनके शारीरिक विविध अवयव भी-सिर, हाथ, पैर, मुख आदि भी बताये गए हैं, पर उनकी प्रतिमा केवल छायात्मक मानी गयी है तथा उनका वर्णन आलंकारिक रूप में हुआ है । जैसे; अग्निदेव की जिह्वा एवं गात्र ज्वाला को कहना। वैदिक देवताओं का बाह्यस्वरूप स्पष्ट रूप से कल्पित है, पर उनकी आन्तरिक शक्ति का संबंध प्राकृतिक तत्त्वों के साथ स्थापित किया गया है। 'ऋग्वेद' में देवताओं की प्रतिमा का वर्णन नहीं मिलता; सूत्र ग्रन्थों में प्रतिमा का वर्णन किया गया है तथा कुछ देवता वीर भट के रूप में उपस्थित किये गए हैं। उनका वर्णन शिरसाण धारण करते हुए, भाला लिये हुए एवं रथ हांकते हुए किया गया है। उनके हाथ में धनुष-बाण भी हैं तथा वे दिव्य रथ पर आरूढ़ होकर आकाश में चलते रहते हैं। वे रथारूढ़ होकर यज्ञ में अपना भाग लेने के लिए आते हैं और कभी-कभी उनका भाग अनिदेव के द्वारा पहुंचाया जाता है। सभी देवताओं को उपकारक, दोर्घायु एवं अभ्युदय प्रदान करने वाला चित्रित किया गया है, पर एकमात्र रुद्र ऐसे देवता हैं जिनसे भय या हानि की संभावना हो सकती है। देवताओं का चरित्र नैतिक दृष्टि से उच्च माना गया है। वे सत्यवादी, छल न करने वाले, धर्म एवं न्याय के पक्षपाती चित्रित किये गए हैं। वेदों में देवता और यजमान का रूप अनुग्राहक एवं अनुग्राह्य का है । भक्त वलि चढ़ा कर उनसे कुछ प्राप्त करने की कामना करता है । ऋग्वेद में देवताओं की संख्या तीस है और कई स्थानों पर त्रिगुण एकादश के रूप में उनका कथन किया गया है। किन्तु कहीं-कहीं अन्य देवताओं के भी संकेत हैं। ऋग्वेद के प्रधान देवता हैं-इन्द्र, अग्निदेव और सोम । शिव, विष्णु सरीखे देवता उस समय प्रमुख देवताओं से निम्न स्तर पर अधिष्ठित किये गए हैं । मूलतः ये देवता भौतिक जगत् के ही अधिष्ठाता हैं। ऋग्वेद के प्रारम्भिक युग में बहुदेववाद का प्राधान्य था, किन्तु-जैसे-जैसे आर्यों का बोद्धिक विकास होता गया वैसे-वैसे उनकी चेतना बहुदेवताओं के अधिपति या एक देवता की कल्पना की ओर गयी; अर्थात् आगे चलकर एकेश्वरवाद का जन्म हुआ। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में सर्वेश्वरवाद की स्थापना की गयी है । वैदिक देवताओं की एक विशेषता यह है कि जिस किसी देवता की स्तुति की जाती है उसे ही महान समझ लिया जाता है, और वही सर्वाधिक व्यापक, जगत् का स्रष्टा एवं विश्व का कल्याणकर्ता सिद्ध किया जाता है । मैक्समूलर ने इसे अति प्राचीन धर्मों की एक विशेषता मानी है। उपर्युक्त तथ्य पाश्चात्य विद्वानों के आधार पर उपस्थित किये हैं, पर भारतीय विद्वानों की धारणा इसके विपरीत है। यास्क ने वैदिक देवताओं का विवेचन करते हुए एक ऐश्वर्यशाली एवं महत्त्वशाली शक्ति की कल्पना की है जिसे 'ईश्वर' कहते हैं। वह एक एवं अद्वितीय है तथा उसकी प्रार्थना अनेक देवों के रूप में की जाती है।
माहाभारयाद् देवताया एक एव आत्मा बहुधास्तूयते । एकस्यात्मनोऽन्य देवाः प्रत्यङ्गानि भवन्ति ॥ ७४८९ । निरुक्त इनके अनुसार ऋग्वेद में एक सर्वव्यापी ब्रह्म सत्ता का ही निरूपण किया गया है। ऐतरेय आरण्यक में इस तथ्य का प्रतिपादन है