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चार्वाक की शानमीमांसा]
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[चार्वाक की शानमीमांसा
चार्वाक का मूल अर्थ क्या था, इसका पता नहीं है । पर कुछ विद्वानों के अनुसार चार्वाक नामक ऋषि ही इसके प्रवर्तक थे। चार्वी नामक एक ऋषि का उल्लेख 'काशिकावृत्ति' में है-नपते चार्वी कोकायते जिसके अनुसार लोकायतशास्त्र में चार्वी नामक आचार्य के द्वारा जड़वाद की व्याख्या का करने का निर्देश है। इस दर्शन के सिद्धान्तों का प्रतिपादन बृहस्पति के शिष्य किसी चार्वाक नामक ऋषि ने ही किया था। उनके ही अनुयायी चार्वाक नाम से प्रसिद्ध हुए। कुछ विद्वानों के अनुसार 'चारुवाक्' या मीठे वचन के कारण इन्हें चार्वाक कहा जाता है, क्योंकि इनके वचन बड़े मीठे होते थे। ये 'खाओ, पीओ मोज उड़ाओ, का उपदेश देते हुए चारु या सुन्दर वचन कहते थे। वाल्मीकीय रामायण में इस दर्शन को 'लोकायत' कहा गया है तथा इसके ज्ञाता या अनुयायी लोकायित के नाम से अभिहित हैं। इनकी विशेषता थी धर्मशास्त्र का निरादर कर तक युक्त बुद्धि के द्वारा निरर्थक बातें करना
कच्चिन्न लोकायतिकान् ब्राह्मणांस्तात सेवसे । अनर्थकुशला ह्येते बालाः पण्डितमानिनः ॥ धर्मशास्त्रेषु मुख्येषु विद्यमानेषु दुर्बुधाः । बुद्धिमान्वीक्षिकी प्राप्य निरर्थ प्रवदन्ति ते ॥
अयोध्याकाण्ड १०२।३८,३९ ।। लोकायत का अर्थ है - लोक में आयत या विस्तृत या व्याप्त । जो सिद्धान्त लोकप्रसिद्ध या लोक में विस्तृत हो उसे लोकायत कहा जाता है। इसके दोनों ही नाम प्रचलित हैं-लोकायत एवं चार्वाक ।
चार्वाक के सिद्धान्त ब्रह्मसूत्र ( शाङ्कर भाष्य ) ( ३२५३-५४ ) कमलशील रचित 'तस्वसंग्रहपंजिका' 'विवरणप्रमेयसंग्रह', 'न्यायमंजरी', 'सर्वसिद्धान्तसंग्रह', 'सर्वदर्शनसंग्रह' 'नैषधीयचरित' (१७ वां सर्ग) तथा 'प्रबोधचन्द्रोदय' ( नाटक ) आदि ग्रन्थों में बिखरे हुए हैं। इस मत का सैद्धान्तिक विवेचन भट्टजयराशि कृत 'तत्त्वोपप्लवसिंह' में उत्तर पक्ष के रूप में प्रस्तुत किया गया है तथा इसके प्रवर्तक वृहस्पति के कतिपय सूत्र भी कई ग्रन्थों में उद्धृत हैं जिन्हें 'बाहस्पस्यसूत्र' कहा जाता है।
पृथिव्यप्-तेजोवायुरिति । तत्त्वानि । तत्समुदाये शरीरेन्द्रियविषय संज्ञा । तेभ्यचैतन्यम् । किण्वादिभ्यो मदशक्तिवद विज्ञानम् । भूतान्येव चेतयन्ते ।।
चैतन्यविशिष्टः कायः पुरुषः । काम एवैकः पुरुषार्थः । मरणमेव अपवर्गः । परलोकिनोऽभावात् परलोकाभावः । प्रत्यक्षमेव प्रमाणम् ।
चार्वाक की शानमीमांसा-इस दर्शन में एक मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण की प्रधानता उद्घोषित की गयी है और अनुमान, उपमानादि को अमान्य ठहरा दिया गया है। ये इन्द्रिय द्वारा प्राप्त झान को ही विश्वसनीय मानते हैं और इन्द्रिय से प्राप्त ज्ञान ही प्रत्यक्ष होता है। अर्थात् इन्द्रियज्ञान ही एक मात्र यथार्थ ज्ञान है, इसलिए अनुमान एवं शब्दादि इसी आधार पर खण्डित हो जाते हैं। इनके अनुसार इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्षीकृत जगत ही सत्य है और उससे परे सभी पदार्थ नितान्त मिथ्या या असत् हैं। जब तक अनुमान द्वारा प्राप्त संशय-रहित और वास्तविक नहीं होती तब तक उसे