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ज्योतिषशास्त्र]
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[ज्योतिषशास्त्र
युग में अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया। इनके सिद्धान्त उन ग्रन्थों के प्रणेताओं के नाम से विख्यात हुए। इनका विवरण वराहमिहिर रचित 'पंचसिदान्तिका' नामक ग्रन्थ में प्राप्त होता है। ये सिद्धान्त हैं-पितामहसिद्धान्त, वसिष्ठसिद्धान्त, रोमकसिद्धान्त, पोलिशसिद्धान्त एवं सूर्यसिद्धान्त । 'पितामहसिद्धान्त' में सूर्य एवं चन्द्रमा के गणित का वर्णन है। 'वसिष्ठसिद्धान्त' पितामहसिद्धान्त की अपेक्षा अधिक परिष्कृत है । इसमें केवल १२ श्लोक हैं। ब्रह्मगुप्त के अनुसार इसके कर्ता विष्णुचन्द्र नामक कोई व्यक्ति थे पर डॉ० थीबो ने इन्हें इसका कर्ता न मान कर संशोधक बतलाया है। [ दे० 'पंचसिद्धान्तिका' की अंगरेजी भूमिका-डॉ थीबो] ।
रोमकसिद्धान्त-इसके व्याख्याता का नाम लाटदेव है। इसकी रचना-शैली से ज्ञात होता है कि इसका निर्माण किसी ग्रीकसिद्धान्त के आधार पर हुआ है । कतिपय विद्वानों का अनुमान है कि यह सिद्धान्त अलकजेण्डिया के विख्यात ज्योतिषशास्त्री टालमी के सिद्धान्त के आधार पर निर्मित है। इसका रचना काल १००-२०० के बीच माना जाता है। इसका गणित अधिक स्थूल है। __पोलिशसिद्धान्त-इस मत की रचना मलकजेण्ड्रियावासी पौलिश के यूनानी सिद्धान्त के आधार पर हुई थी। पर अनेक विद्वान् इससे असहमत हैं। इसका भी ग्रहगणित अतिस्थूल है।
सूर्यसिद्धान्त-इसके कर्ता सूर्य नामक ऋषि हैं। पाश्चात्य विद्वानों ने इसका रचनाकाल ई०पू० १८० या १०० ई० माना है। यह ज्योतिषशास्त्र का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसमें मध्यमाधिकार, स्पष्टाधिकार, त्रिप्रश्नाधिकार, सूर्यग्रहणाधिकार, परलेखाधिकार, ग्रहयुत्यधिकार, नक्षत्रग्रहयुत्यधिकार, उदयास्ताधिकार, श्रृंगोन्नत्यधिकार, पाताधिकार तथा भूगोलाध्ययाय । ___ इसी युग के अन्य प्रसिद्ध ग्रंथों में 'नारदसंहिता' एवं 'गर्गसंहिता' नामक ग्रंथ आते हैं, पर इनका रचनाकाल असंदिग्ध नहीं है। 'गर्गसंहिता' के कुछ ही अंश प्राप्त होते हैं जो न केवल ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से अपितु भारतीय संस्कृति के विचार से भी महत्त्वपूर्ण हैं।
- ज्योतिष के प्राचीन आचार्यों में ऋषिपुत्र का नाम मिलता है जिनके सिद्धान्त का विवरण 'बृहत्संहिता' की टीका में भट्टोत्पल द्वारा किया गया है। ये गर्गमुनि के पुत्र बताये गए हैं। इस युग के अन्य महान् आचार्यों में आर्यभट्ट प्रथम ( ४७६ ई० जन्म) ने 'बार्यभट्टीय' तथा 'तन्त्रग्रन्थ' द्वितीय आर्यभट्ट ने 'महाआर्यभट्ट सिद्धान्त' लल्लाचार्य ने 'धीविद्वतन्त्र' तथा 'रत्नकोश' प्रभृति उत्कृष्ट ग्रन्थों का प्रणयन किया।
पूर्वमध्यकाल ज्योतिषशास्त्र के सम्बर्द्धन का युग है । इस युग में होरा, सिद्धान्त एवं संहिता प्रभृति ज्योतिष के विभिन्न अंगों तथा बीजगणित, अंकगणित, रेखागणित एवं फलित ज्योतिष का अद्भुत विकास हुआ । आचार्य वराहमिहिर का आविर्भाव इसी युग में हुआ था जिन्होंने 'बृहज्जातक' नामक असाधारण एवं विलक्षण ग्रंथ की रचना की थी। ये सम्राट विक्रमादित्य की सभा के नवरत्नों में से थे । 'सारावली' नामक यवन होराशास्त्र के रचयिता कल्याणवर्मा (५७७ ई. के आसपास ) ने ढाई हजार श्लोकों