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वैदिक देवता ]
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[ वैदिक देवता
अन्धकार छा जाता है।
पदेदयुक्त हरितः सधस्थादउषस्पति कहा जाता है ।
विश्राम देता है तभी रात्रि का बद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै ॥ ऋग्वेद १।११५।४ ।। उसे वह दिन का परिमाण एवं आयु को बढ़ानेवाला है । उसे मित्रावरुण का नेत्र कहा गया है तथा आकाश में उडने वाले पक्षी, लाल पक्षी या गृद्ध के रूप में सम्बोधित किया गया है । वह रोग तथा दुःस्वप्नों को दूर कर देता है । उसे अपने गौरव एवं महत्त्व के कारण 'देवपुरोहित' ( असुयं पुरोहितः ) कहा गया है । उद्वेति सुभगो विश्वचक्षाः साधारणः सूर्यो मानुषाणाम् । चक्षुमित्रस्य वरुणस्य देवश्चर्मेव यः समविव्यक् तमांसि ॥ ऋग्वेद ७।६३।१ ।।
विष्णु - वेदों में विष्णु अत्यधिक महत्त्वपूर्ण देवता के रूप में चित्रित नहीं हैं । ऋग्वेद में सविता, पूषा, सूयं प्रभृति देवों की अपेक्षा उनकी स्तुति कम हुई है । वे सूर्य के प्रतीक के रूप में चित्रित किये गए हैं। उन्हें त्रिविक्रम कहा गया है क्योंकि वे तीनों लोकों में संचरण करते हैं। विष्णु की कल्पना मूलतः सूर्य के ही रूप में की गयी है तथा वे सूर्य के त्रियाशील रूप का प्रतिनिधित्व करते हैं । सबमें व्याप्त होने के कारण उन्हें विष्णु कहा जाता है । उनका सर्वोच्च पदक्रम स्वर्गं माना गया है जिसको पाने के लिए आयं लोगों ने प्रार्थना की है । उस स्थान पर देवता एवं पितृगण का निवास है । तदेस्य प्रियमभिपाथो अश्यां नरो यत्र देवयवो भदन्ति । उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्या विष्णोः प्रदे परमे मध्व उत्सः । ऋग्वेद १ । १५४।५ । 'हे भगवन् ! मैं विष्णु देवता के परमप्रिय धाम को प्राप्त कर सकूं जहां उसके भक्तगण देवताओं के मध्य आमोदप्रमोद करते हैं । विष्णु हमारे परम बान्धव हैं, उनका पदक्रम बहुत ही शक्तिशाली है, उनके परमपद में अमृत का स्रोत है ।' विष्णु ने तीन डग में पृथ्वी को माप डाला है - एको विममे त्रिभिरित पदेभिः । इन विशाल पादों के कारण इन्हें 'उरुक्रम' या उरुगाय कहा गया है । इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम् । समूढस्य पांसुरे ॥ ऋ०
१।२२|७ | विष्णु का विकास पौराणिक युग में हुआ जिसका बीज वेदों में है ।
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वह
उषा -- उषा से सम्बद्ध सूक्तों में गीति काव्य का मनोरम रूप मिलता है । उसके सौन्दर्य वर्णन में उच्चकोटि की कविकल्पना के दर्शन होते हैं । वह नत्तंकी सदृश प्रकाशमान वस्त्रों से आवेष्टित चित्रित की गयी है । प्राची क्षितिज पर उदित होकर वह रजनी के अन्धकार को दूर कर देती है । द्योः की पुत्री तथा श्याम रजनी की भास्वर भगिनी है । वह सूर्य को प्रणयिनी है तथा उसी की प्रभा से उद्भासित होती है। सूर्य उसी के मार्ग का अनुसरण नवयुवक की भाँति करता है । वह प्राची क्षितिज पर भव्य वस्त्रों से सुसज्जित होती हुई अपनी मोहिनी क्रियायें प्रकट करती है । उसका रंग हिरण्यवर्ण का है तथा उसके सुवर्णमय रथ को लाल रंग वाले सुन्दर और सुदक्ष घोड़े खींचते हैं जिससे यह आकाश में पहुँच जाती है । यह लोगों को प्रातः काल में जगाकर प्रातःकालीन अग्निहोत्र के लिए प्रेरित करती है। सूर्य से प्रथम उदित होने के कारण उसे कहीं-कहीं सूर्य की जननी कहा गया है तथा आकाश में उदित होने के कारण दिव की पुत्री के रूप में चित्रित की गयी है । उसे मघोनी ( दानशील )