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अष्टाध्यायी ]
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[ अष्टाध्यायी
विषयों की चर्चा की गयी है- संज्ञा एवं परिभाषा, स्वरों तथा व्यजनों के भेद, धातु - सिद्ध क्रियापद, कारक, विभक्ति, एकदेश, समास, कृदन्त, सुनन्त, तद्धित, आगम, आदेश, स्वर्राकचार, द्वित्व तथा सन्धि । इसके चार नाम उपलब्ध होते हैं - अष्टक, अष्टाध्यायी, शब्दानुशासन एवं वृत्तिसूत्र । शब्दानुशासन नाम का उल्लेख पुरुषोत्तमदेव, सृष्टिधराचार्य, मेधातिथि, न्यासकार तथा जयादित्य ने किया है। महाभाष्यकार भी इसी शब्द का प्रयोग करते हैं ।
'अथेति शब्दोऽधिकारार्थः प्रयुज्यते । शब्दानुशासन नाम शास्त्रमंधिकृतं वेदितव्यम् । 'महाभाष्य' की प्रथम पंक्ति ।
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'महाभाष्य' के दो स्थानों पर 'वृत्तिसूत्र' नाम आया है तथा जयन्तभट्ट की 'न्यायमब्जरी' में भी 'वृत्तिसूत्र' का उल्लेख है ।
वृत्तिसूत्रं तिलाभाषा: कपत्रीकोद्रवोदनम् ।
अजडाय प्रदातव्यं जडीकरणमुत्तमम् ॥ न्यायमञ्जरी पृ० ४१८
'अष्टाध्यायी' में अनेक सूत्र प्राचीन वैयाकरणों से भी लिये गए हैं तथा उनमें कहींकहीं किचित् परिवत्र्तन भी कर दिया गया है । इसमें यत्र-तत्र प्राचीनों के श्लोकांशों का भी आभास मिलता है -
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तस्मैदीयते युक्तं श्राणामांसौदनाट्टिठन्, ४।४।६६, ६७ बुद्धिरादैजदेङ्गुणः, १।१।१, २ पाणिनि ने अनेक आपिशलि सूत्र भी ग्रहण किये हैं तथा 'पाणिनीय शिक्षासूत्र' भी आपिशलि के शिक्षासूत्रों से साम्य रखते हैं । कोई भी व्याकरण-ग्रन्थ प्राप्त नहीं होता, अतः यह कहना कठिन ग्रहण किये । प्रातिशाख्यों तथा श्रीतसूत्र के साथ दिखाई पड़ती है । 'अष्टाध्यायी' की पूर्ति के लिए पाणिनि ने धातुपाठ, गणपाठ, उणादिसूत्र तथा लिङ्गानुशासन की भी रचना की है जो उनके शब्दानुशासन के परिशिष्ट रूप में मान्य हैं । प्राचीन ग्रन्थकारों ने इन्हें 'खिल' कहा है ।
इनके पूर्व का कि पाणिनि अनेक सूत्रों की
ने
किन-किन ग्रन्थों से सूत्र समता पाणिनीय सूत्रों के
उपदेशः शास्त्रवाक्यानि सूत्रपाठः खिलपाठश्च । काशिका १।३।२
नहि उपदिशन्ति खिलपाठे ( उणादिपाठे ) भर्तृहरिकृत महाभाष्यदीपिका पृ० १४९
पाश्चात्य विद्वानों ने 'अष्टाध्यायी' का अध्ययन करते हुए उसके महत्त्व को स्वीकार किया है | वेबर ने अपने इतिहास में 'अष्टाध्यायी' को संसार का सर्वश्रेष्ठ व्याकरण माना है । क्योंकि इसमें अत्यन्त सूक्ष्मता के साथ धातुओं तथा शब्द का विवेचन किया गया है । गोल्डस्ट्रकर के अनुसार 'अष्टाध्यायी' में संस्कृत भाषा का स्वाभाविक विकास उपस्थित किया गया है । पाणिनि व्याकरण की विशेषता धातुओं से शब्द - निर्वचन की पद्धति के कारण है । उन्होंने लोकप्रचलित धातुओं का बहुत बड़ा संग्रह धातुपाठ में किया है । पाणिनि ने 'अष्टाध्यायी' को पूर्ण, सर्वमान्य एवं सर्वमत समन्वित बनाने के लिए अपने समग्र पूर्ववर्ती साहित्य का अनुशीलन करते हुए उनके मत का उपयोग किया तथा गान्धार, अंग, बंग, मगध, कलिंग आदि समस्त जनपदों का परिभ्रमण कर वहाँ की सांस्कृतिक निधि का भी समावेश किया है । अतः तत्कालीन भारतीय 'चाल-ढाल, आचार-व्यवहार, रीति-रिवाज, वेश-भूषा, उद्योग-धंधों, वाणिज्य - उद्योग,