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अश्वघोष ]
[अष्टाध्यायी raamwammarwarmarxrammammmmm
'वातायनों से निकले हुए स्त्रियों के मुख-कमल, जो एक दूसरों के कुण्डलों को छू रहे ( क्षुब्ध कर रहे ) थे, ऐसे शोभित हुए जैसे प्रासादों में कमल लगे हुए हों।' __ बाह्यप्रकृति के चित्रण में भी कवि की कुशलता अवलोकनीय है। इन्होंने प्रकृति का चित्रण शृङ्गाररस के उद्दीपन के रूप में, कहों आलंबन के रूप में तथा कहीं नीतिविषयक विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए किया है। हिमालय के वृक्षों का सुन्दर वर्णन देखिए--
रक्तानि फुल्लाः कमलानि यत्र प्रदीपवृक्षा इव भान्ति वृक्षाः ।
प्रफुल्लनीलोत्पलरोहिणोन्ये सोन्मीलिताशा इव भान्तिवृक्षाः ।। सौन्दरनन्द १०।२१ 'जहाँ लाल कमलों वाले पुष्पित वृक्ष दीपकयुक्त वृक्षों के समान शोभित हो रहे हैं, विकसित नीलकमलों से युक्त वृक्ष ऐसे शोभित होते हैं जैसे उन्होंने आंखें खोली हों।'
अश्वघोष रसविधायक कलाकार हैं । इनकी कविता में शृङ्गार, करुण एवं शान्तरस की वेगवती धारा अबाध गति से प्रवाहित होती है। इन्हें करुणरस के चित्रण में अत्यधिक दक्षता प्राप्त है। नन्द के भिक्षु बन जाने पर उनकी प्रिया सुन्दरी का करुण क्रन्दन, पत्नी के लिए नन्द का शोक, सिद्धार्थ के प्रव्रज्या-ग्रहण करने पर यशोधरा एवं उनके माता-पिता का विलाप अत्यन्त करुणोत्पादक है। इसी प्रकार की कुशलता अलंकारों के प्रयोग में भी दिखाई पड़ती है। इनका अलंकार-विधान स्वाभाविक एवं रसोत्कर्ष विधायक है। बाह्य एवं आन्तरिक सौन्दर्य के निरूपण के लिए ही शब्दालंकारों तथा अर्थालंकारों का समावेश किया गया है। . ____ अश्वघोष की भाषा कोमल, सरल एवं अकृत्रिम है। कालिदास की कवित्व प्रतिभा के निरूपण के लिए इनका महत्त्व आवश्यक है।
आधार ग्रन्थ-१. महाकवि अश्वघोष-डॉ० हरिदत्त शास्त्री २. संस्कृत-कविदर्शन-डॉ० भोलाशंकर व्यास, ३. संस्कृत काव्यकार-डॉ० हरिदत्त शास्त्री, ४. संस्कृत साहित्य का इतिहास-कीथ । __ अयध्यायी-पाणिनि विरचित प्रसिद्ध व्याकरण ग्रन्थ । 'अष्टाध्यायी' भारतीय शब्द-विद्या का प्राचीनतम ग्रन्थ है जो अपनी विशालता, क्रमबद्धता एवं विराट् कल्पना के कारण विश्व के अपूर्व व्याकरणों में सर्वोच्च स्थान पर अधिष्ठित हैं। इससे संस्कृत भाषा के सभी अंग भास्वर हो चुके हैं और उसमें पूर्ण वैज्ञानिकता आ गयी है । रह आठ अध्यायों में विभक्त है। इसके प्रत्येक अध्याय में चार पद तथा कुल ३९८१ पुत्र हैं। 'अष्टाध्यायी' के प्रत्याहार सूत्रों की संख्या १४ है जिनके योग से कुल सूत्र १९९५ हो जाते हैं। इसके प्रथम दो अध्यायों में पदों के सुबन्त. तिङ्न्त-भेदों तथा
क्य में उनके पारस्परिक सम्बन्ध का विचार किया गया है। तृतीय अध्याय में तुओं के द्वारा शब्द-सिद्धि का निरूपण तथा चतुर्थ और पन्चम अध्यायों में पतिपदिकों एवं शब्द-सिद्धि का विवेचन है। षष्ठ एवं सप्तम अध्यायों में सुबन्त और तिङ्न्त शब्दों की प्रकृति-प्रत्ययात्मक सिद्धि तथा स्वरों का विवेचन है। अष्टम ध्याय में 'सन्निहित पदों के शीघ्रोच्चारण से वो या स्वरों पर पड़ने वाले प्रभाव । चर्चा है।' पतञ्जलिकालीन भारतवर्ष पृ० १८ । इस ग्रन्थ में निम्नांकित प्रतिपाद्य