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[अश्वघोष
दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवानि गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काचिद्विदिशं न काञ्चित्स्नेह क्षयात्केवलमेतिशान्तिम् ।। एवं कृती निवृतिमभ्युपेतो नैवावनि गच्छतिनान्तरिक्षम् । दिशं न काचिद्विदिशं न काञ्चित्क्लेशक्षयात्केवलमेतिशान्तिम् ।।
सौन्दरनन्द १६।२८,२९ _ 'जिस प्रकार दीपक न पृथ्वी पर जाता है, न आकाश में, न दिशा में न किसी विदिशा में; किन्तु तेल समाप्त हो जाने पर केवल शान्ति को प्राप्त होता है, उसी प्रकार निर्वाण को प्राप्त हुआ पुण्यात्मा न पृथ्वी पर जाता है, न आकाश में, न दिशा में न किसी विदिशा में, अपितु क्लेशों का क्षय हो जाने के कारण केवल शान्ति को प्राप्त हो जाता है।' यहाँ कवि ने दीपक के उदाहरण द्वारा निर्वाण के तत्त्व को सरलतापूर्वक व्यक्त किया है। 'सौन्दरनन्द' महाकाव्य में नन्द को उपदेश देते हुए बुद्ध कहते हैं
अवाप्यकार्योऽसि परां गतिं गतो नतेऽस्तिकिन्चित्करणीय मण्वपि ।
अतः परं सौम्य चरानुकम्पया विमोक्षयन् कृच्छ्रगतान् परानपि ॥ १८१५४ 'तुमने अपना कार्य पूर्ण कर लिया है, परमगति को तुम प्राप्त कर चुके हो, तुम्हारे लिए अणुभर भी कुछ करने को अब शेष नहीं है। ( अतः ) अब से बाद में हे सौम्य ! क्लेशों में पड़े हुए दूसरों को भी दयापूर्वक मुक्त करते हुए विचरण करो।' ___ काव्य-कला-अश्वघोष की कविता सरलता की मूत्ति, स्वाभाविकता की खान तथा कृत्रिमता से रहित है। इनकी कविता में माधुर्य एवं प्रसाद गुणों का सुन्दर समावेश है । कवि ने महाकवि कालिदास के दाय को ग्रहण कर अपने काव्य का स्वरूप मंडित किया है। इनका व्यक्तित्व महाकाव्यकार का है और एक सफल महाकाव्य की रचना के लिए जिन गुणों की आवश्यकता है उनकी पूर्णता इनमें दिखाई पड़ती है। कवि वस्तुओं एवं कार्य-व्यापारों के मूर्त चित्रण में अत्यन्त कुशल है। अश्वघोष को मानव जीवन की भावनाओं का पूर्ण परिज्ञान था तथा किन परिस्थितियों में मनुष्य की क्या स्थिति होती है इसका चित्र उपस्थित करने में वे पूर्ण सफल हुए हैं। 'बुद्धचरित' में कुमार को देखने के लिए समुत्सुक रमणियों का अत्यन्त मोहक चित्र उपस्थित करता है
शीघ्रं समर्थापि न गन्तुमन्या गति निजग्राह ययौ न तूर्णम् ।
ह्रियप्रगल्भाविनिगृहमाना रहः प्रयुक्तानि . विभूषणानि ॥ ३॥१७ 'दूसरी सुन्दरी ने शीघ्र जाने में समर्थ होने पर भी अपनी चाल को रोक लिया और वह वेगपूर्वक नहीं गयी, वह संकोचशीला एकान्त में पहने हुए आभूषणों को लज्जावश छिपाने लगी। ___ इनमें निरीक्षणशक्ति अत्यन्त सूक्ष्म तथा कल्पनाशक्ति विकसित है जिससे इन्होंने अपने चित्रों को अधिक स्वाभाविक एवं हृदयग्राही बनाया है
वातायनेभ्यस्तु विनिःसृतानि परस्परायासित कुण्डलानि । स्त्रीणां विरेजुंमुखपङ्कजानि सक्तानिहर्येष्विव पङ्कजानि ॥ ३.१९ बुद्धचरित