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[ श्राचाराङ्ग-सूत्रम्
करता है । 'मैं नीरोग होकर चिरकाल तक जीऊँगा तो सांसारिक सुख भोगूँगा' इस श्रभिलाषा से वह शरीर को पुष्ट बनाने के लिए प्राणियों का मांस भक्षण करना आदि क्रियाओं में प्रवृत्ति करता है । अल्प सुख के लिए तथा मिथ्या मान-प्रतिष्ठा के लोभ से तथा अहंकार से महारम्भ और महापरिग्रह के द्वारा वह अशुभ कर्मों का ग्रहण करता है । यह जीव कमल - पत्र पर रहे हुए जल - बिन्दु के समान चञ्चल जीवन को टिका रखने की असम्भव एवं निर्मूल भावना से प्राणी-पीड़नादि हिंसक क्रियाओं में प्रवृत्त होता है ।
परिवन्दन के लिए भी साद्य प्रवृत्ति की जाती है । जैसे- " मैं मयूर आदि के मांस का भक्षण करूँगा तो हृष्ट-पुष्ट और तेजस्वी देवकुमार के समान बन जाऊँगा । इससे दुनिया मेरी प्रशंसा करेगी ।” इस प्रशंसा के प्रलोभन में पड़ कर भी प्राणी आरम्भ में प्रवृत्ति करते हैं।
मान - सत्कार प्राप्त करने के लिए भी प्राणी हिंसा में प्रवृत्ति करता है। जैसे " मेरे श्रने पर मनुष्य खड़े होकर मेरा सत्कार करें, मुझे ऊँचा ग्रासन प्रदान करें, मेरे सामने हाथ जोड़ कर खड़े रहें" इस प्रकार की मान की अभिलाषा से प्रेरित होकर भी प्राणी विविध पापकर्मों में प्रवृत्ति करता है ।
द्रव्य, वस्त्र, खान-पान, सत्कार, प्रणाम और सेवा आदि के द्वारा जनता मेरी पूजा करे इस हेतु से भी प्राणी सावद्य प्रवृत्ति अंगीकार करता है ।
जन्म-मरण से मुक्त होने के लिए भी प्राणी, विवेक को भूलकर पञ्चाग्नितप तपना, तीर्थस्नान वगैरह करना आदि २ सावद्य प्रवृत्ति करता है । अपने मति-विभ्रम के कारण वास्तविक धर्म के रहस्य को नहीं समझता हुआ प्राणी धर्म के नाम पर भी हिंसा करता है और उस हिंसा को कल्याणकारी समझता है । परन्तु सूत्रकार स्पष्ट फरमाते हैं कि धर्म के नाम पर की गई हिंसा भी हिंसा ही है वह कदापि क्षम्य नहीं हो सकती । हिंसा - चाहे वह धर्म के, गुरु के या और किसी भी निमित्त से होती हो -हिंसा ही है। हिंसा श्रधर्म है अतः कोई भी धर्मक्रिया अधर्म से नहीं हो कती । धर्मक्रिया में अधर्म को स्थान नहीं हो सकता । तदपि विवेक को भूलकर, धर्म के सम्यक स्वरूप को नहीं समझने के कारण प्राणी धर्म के नाम से भी अधर्म में प्रवृत्ति करता है ।
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'जाइ - मरण - मोयलाए' इस पद का यह भी अर्थ है कि प्राणी जन्म-प्रसंग, मरण-प्रसंग, वैर-मोचन आदि के निमित्त भी हिंसा करता है । पुत्र श्रादि का जन्म होने पर खुशी मनाने के लिए मित्र, स्वजन जाति आदि को निमंत्रितकर विविध भोजन आदि तय्यार किये जाते हैं और नाना प्रकार के आरम्भ समारम्भ किये जाते हैं। इसी प्रकार मरण के निमित्त भी पितरों को पिण्ड दान देने के बहाने भी जीव सावध क्रियाएँ करता है । वैर लेने के लिए भी प्राणी हिंसा में प्रवृत्त होता है। जैसे- "अमुक व्यक्ति ने मेरा या मेरे सम्बन्धी का अनिष्ट किया है इसलिए उसका बदला लेना चाहिए" यों सोचकर प्राणी उसका अहित करने के लिए तत्पर हो जाता है ।
इस पद के स्थान पर किन्हीं प्रतियों में 'जाइ-मरण - भोषणाए' ऐसा पाठान्तर मिलता है। वहाँ 'भोया' का अर्थ यह समझना चाहिए कि भोजन के निमित्त अर्थात् पेट की ज्वाला शान्त करने के लिए या स्वादिष्ट भोजन के लिए भी हिंसा की जाती है ।
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