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पञ्चम अध्ययन चतुर्थोद्देशक ]
में भी सहने पड़ते हैं । अब्रह्म-प्रवृत्त व्यक्ति को अर्थार्जन करना पड़ता है और उसके निमित्त पाप की श्रेणी बढ़ती जाती है इसीलिए काम को पतन का मूल कहा है। काम से क्रोध, क्रोध से संमोह, संमोह से स्मृतिविभ्रम, स्मृतिविभ्रम से बुद्धिनाश और बुद्धिनाश से पतन; इस प्रकार काम के पीछे समस्त पतन श्रेणी का प्रारम्भ होता है इसलिए यह क्रिया अति दूषित है अतएव सर्वप्रथम त्याज्य है।
. सूत्रकार अागे यह बताते हैं कि विषय-वासना पर विजय पाने की इच्छा रखने वाला साधक यदि वासना के निमित्तों को खुले रख कर साधना करने बैठे तो वह निष्फल होता है। ऐसे साधक को विकारी निमित्तों से सदा बचकर रहना चाहिए। जैसे खेत की रक्षा करने के लिए किसान खेत के चारों चारों ओर वाड़ लगा देता है उसी प्रकार ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए शास्त्रकारों ने वाड़ों का विवेचन किया है।
(१) जिस प्रकार जहाँ बिल्ली रहती है वहाँ चूहे का रहना विनाश का कारण है इसी तरह जिस मकान में स्त्री हो वहाँ ब्रह्मचारी का रहना उसके ब्रह्मचर्य के पतन का कारण है अतएव बी वाले मकान में ब्रह्मचारी साधक को नहीं रहना चाहिए।
(२) जिस प्रकार नीबू, इमली आदि खट्टे पदार्थों का नाम लेने से मुंह में पानी भर आता है इसी तरह स्त्री के हाव-भाव, शृङ्गार विलास आदि की चर्चा करने से विकार उत्पन्न हो जाता है अतएव ब्रह्मचारी को स्त्री सम्बन्धी कथा-वार्ता नहीं करनी चाहिए।
(३) जिस प्रकार चावलों के पास कच्चे नारियल रहने से उसमें कीड़े पड़ जाते हैं, अथवा पाटे में भूरा कोला रखने से उसमें विकृति आ जाती है अथवा पोदीने का अर्क, अजवायन का सत्व और कपूर को एकत्र करने से सब द्रवित हो जाते हैं इसी तरह स्त्री, पुरुष एक ही श्रासन पर बैठे तो शारीरिक घनिष्ठता से ब्रह्मचर्यभङ्ग हो जाता है अतएव ब्रह्मचारी को स्त्री के साथ एक आसन पर नहीं बैठना चाहिए और घनिष्ठता भी नहीं बढ़ानी चाहिए।
(४) जैसे सूर्य की ओर टकटकी लगाने से नेत्रों की हानि होती है उसी प्रकार स्त्री के अंगोपाङ्ग की ओर स्थिरदृष्टि से देखने से ब्रह्मचर्य को हानि पहुँचती है। अतएव ब्रह्मचारी स्त्री के अङ्गोपाङ्गों को न देखे । दृष्टि पड़ते ही उसका संहरण कर लेना चाहिए।
(५) जैसे मेघ की गर्जना से मयूर का चित्त चञ्चल हो उठता है उसी तरह पर्दे की या दीवाल की ओट में स्त्रीपुरुष के कामुकता पूर्ण शब्दों को सुनने से अन्तःकरण चञ्चल हो उठता है अतएव ब्रह्मचारी को ऐसे शब्द न सुनना चाहिए । हास्य, रुदन, गीत आदि भी नहीं श्रवण करने चाहिए।
(६) ब्रह्मचारी को अपने पूर्व के भोगे हुए कामभोगों का स्मरण नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से ब्रह्मचर्य का विनाश होता है । इसके लिए जिनरक्षित और जिनपाल का उदाहरण है अथवा वृद्धा और छाछ का भी दृष्टान्त है। एक बार किसी वृद्धा के यहाँ कुछ पथिक छाछ पीकर चले गये। पश्चात् बुढिया ने छाछ देखी तो उसमें सांप निकला। छह मास के बाद वे ही पथिक जब उस वृद्धा के यहाँ ठहरे तो उन्हें जीवित देखकर वृद्धा बहुत प्रसन्न हुई। उसने पथिकों से कहा-बेटा ! तुम्हें जीवित देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता होती है क्योंकि जब तुम पहिले यहाँ आये और तुमने छाछ पी थी उसमें मरा हुमा सांप निकला था । मैं तुम्हें जीवित देखकर बड़ी खुश हूँ। वृद्धा की यह बात सुनते ही पथिक सब मर गये। इससे यह सिद्ध होता है कि पहिले भोगे हुए भोग का स्मरण भी भयंकर होता है अतएव पूर्व के कामभोगों का स्मरण नहीं करना चाहिए।
(७) जैसे सन्निपात के रोगी के लिए मिष्टान्न आदि पदार्थ हानिकारक हैं इसी तरह से सदा सरस और पौष्टिक आहार करने से ब्रह्मचर्य को हानि पहुँचती है अतएव ब्रह्मचारी सरस आहार न करे।
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