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चतुर्थ अध्ययन द्वितीयोद्देशक ]
२६५ आज्ञा से मुक्त और कर्म बाँधते हुए । अभिसमिचा-जानकर | पुढो पवेइयं निर्जरा और आस्रव के उपादानों को जानकर कौन धर्म में प्रयत्नशील न होगा ?
भावार्थ-जो आस्रव (कर्म-बन्धन ) के हेतु हैं वे कर्म की निर्जरा के हेतु भी हो सकते हैं और जो कर्म की निर्जरा के हेतु हैं वे कर्म-बन्धन के हेतु भी बन जाते हैं । (अथवा जितने कर्म खपाने के हेतु हैं उतने ही कर्म-बन्धन के हेतु हैं और जितने कर्म-बन्धन के हेतु हैं उतने ही कर्म-क्षय के भी हेतु हैं।) जो व्रतादि प्रास्रव रूप नहीं हैं वे भी (अशुभ अध्यवसायों से) निर्जरा के कारण नहीं होते हैं और जो संवर या निजरा के कारण नहीं हैं वे भी कदाचित् (शुभ परिणामों से) पाप-बन्ध के कारण नहीं होते हैं।
__विवेचन-प्रकृत सूत्र में कर्म-बन्धन और कर्म-निर्जरा के हेतुओं के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण किया गया है । विशेषतः कर्म-बन्धन और कर्म-निर्जरा का अाधार अध्यवसाय हैं । बाह्य कारणों पर कर्म-बन्धन या कर्म-निर्जरा का अाधार इतना नहीं है जितना कि परिणामों की धारा पर । यही कारण है कि एक ही पदार्थ को देखकर एक व्यक्ति एक तरह का विचार करता है और दूसरा व्यक्ति दूसरी तरह का और तीसरा व्यक्ति तीसरी तरह का । एक ही पदार्थ का अवलोकन एक के लिए विलास का पोषक है और एक के लिए वैराग्य-वर्द्धक है। एक ही पदार्थ एक के लिए अमृत है और एक के लिए विष । जिन स्त्री, माला
आदि पदार्थों को देखकर विषयी जीव कर्मों का उपादन करते हैं उन्हीं को देखकर विषयसुखों से पराङ्मुख बने हुए तत्त्वदर्शी पुरुष उन्हें निस्सार जानकर वैराग्य-भावना का पोषण करते हैं । तात्पर्य यह है कि उपादान की शुद्धि या अशुद्धि के अनुसार निमित्त भी शुद्ध या अशुद्ध बना लिए जाते हैं। श्राभ्यन्तर चित्तवृत्ति के अनुसार एक ही पदार्थ एक को एक रूप में दिखाई देता है और दूसरे को दूसरे रूप में । चित्तवृत्ति का प्रतिबिम्ब पदार्थों पर पड़ता है । एक वेश्या के मृत शरीर को देखकर एक कामी सोचता है कि क्या ही अच्छा होता अगर यह जीवित होती ? मैं इसके साथ वैषयिक सुखोपभोग करता । उसी मृत शरीर को देखकर योगी सोचता है कि अहो ! शरीर की क्षणभङ्गुरता । अहा ! संसार की निस्सारता । आखिर इस पौद्गलिक शरीर का यही दारूण फल और परिणमन होने वाला है। मनुष्य अपने सुन्दर तन का अभिमान करते हैं और रातदिन इसे सजाने में व्यतीत कर देते हैं आखिर इसका यह परिणमन कि जलकर गख हो जायगा ! आश्चर्य ! महा आश्चर्य ! ! यह वेश्या अपना शीलरत्न बेचकर अनेक को पतित करती थी और आज क्या साथ ले जा रही है ? कैसी संसार की विडम्बना है। उसी शव को देखकर कुत्ता सोचता है कि लोग यहाँ से दूर हों तो मैं इसका मांस खाऊँ। इस तरह एक ही शव को देखने पर कामी, योगी और कुत्ते के भिन्न २ विचार हुए। कहने की आवश्यकता न होगी यह उनकी चित्तवृत्ति का प्रभाव है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है चित्त के परिणामों की धारा के अनुसार पदार्थ अच्छे या बुरे बन जाते हैं। पदार्थ में स्वयं अच्छाई या बुराई नहीं रही हुई हैं। दुनिया का कोई भी पदार्थ निरूपयोगी नहीं हैं। शिक्षा ग्रहण करने वाला व्यक्ति दुनिया के प्रत्येक पदार्थ में से शिक्षा ले सकता है और बुराई देखने वाला प्रत्येक अच्छे से अच्छे पदार्थ में से बुराई ले सकता है। इससे एक ही बात फलित होती है कि बाह्य-संसार अथवा बाह्य पदार्थ स्वयं बुरे नहीं है परन्तु उनमें प्राणियों की श्रासक्ति, अनिष्ट का कारण है । पदार्थों का सदुपयोग अथवा दुरुपयोग कर्ता की चित्तवृत्ति पर निर्भर है। इसीलिए सूत्रकार ने फरमाया है कि जो कर्म के आने के मार्ग हैं वे ही कर्म की निर्जरा के निमित्त बन जाते हैं और जो कर्म की निर्जरा के निमित्त हैं वे ही कर्म के आस्रव के निमित्त बन जाते हैं । मिध्यादृष्टियों के लिए जो पाप के कारण हैं वे ही तत्त्व
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