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अष्टम अध्ययन प्रथमोद्देशक ]
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न समझें | सच्चा साधक दूसरे व्यक्ति को पापकर्म करते हुए देखकर भी लज्जित होता है । वह उसे नहीं देख सकता है । इस प्रकार पापकर्मों को जानकर बुद्धिमान् संयमी और पापभीरु साधक हिंसा और अन्य प्रकार दन्डों से निवृत्त हो ।
विवेचन - पूर्ववर्ती सूत्र में त्रियाम (अहिंसा, सत्य और निर्ममत्व ) का कथन किया गया है। यहाँ सूत्रकार यह बताते हैं कि ये त्रियाम जीवन व्यवहार में कैसे उतरें ? सूत्रकार इस सूत्र में हिंसा की व्यावहारिकता का स्पष्टीकरण कर देते हैं ।
हिंसा की व्यावहारिकता के विरुद्ध यह शंका की जाती है कि यह सारा संसार सूक्ष्म बादर जीवों से संकुल है। ऊर्ध्व, निम्न और मध्यम दिशा में तथा सभी विदिशाओं में जीव भरे हुए हैं। ऐसी स्थिति में प्राणी यदि कोई भी क्रिया करता है तो उसमें प्राणी-वध अनिवार्य रूप से होता ही है तो सम्पूर्ण अहिंसा का पालन किस प्रकार सम्भव है ? साधक को भी हलन चलनादि क्रियाएँ अवश्य करनी ही पड़ती हैं तो वह हिंसा से कैसे बच सकता है ? यह शंका आमतौर पर उठायी जाती है।
इस शंका का समाधान इस सूत्र से हो जाता है । सूत्रकार कहते हैं कि संसार में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जो कर्मसमारम्भ से मुक्त हो । संसारवत्र्त्ती प्रत्येक प्राणी कोई न कोई क्रिया अवश्य ही करता रहता है। साधक भी चाहे वे निवृत्ति क्षेत्र के हों, चाहे वे प्रवृत्ति क्षेत्र में हों, चाहे कर्मयोगी हों, चाहें ज्ञानयोगी हों, वे क्रिया अवश्य करते हैं। उनकी क्रियाओं में कभी शारीरिक क्रियाओं की प्रधानता होती है तो कभी मानसिक क्रियाओं की; लेकिन वे क्रियामुक्त तो नहीं कहे जा सकते। इसलिए क्रियामात्र में पाप है ऐसा एकान्त नियम नहीं है। जो मेधावी साधक क्रिया करते हुए विवेक को सामने रखता है वह पाप से बच जाता है । जो व्यक्ति विवेक से काम लेता है वह अपना पाप दूर कर सकता है । पाप का सम्बंध क्रिया से उतना नहीं है जितना कि वृत्ति से । अगर एक व्यक्ति वृत्ति से पाप से मुक्त है तो वह क्रिया करता हुआ भी पापमुक्त हो सकता है । क्रिया तो उसे लगती है परन्तु इससे उसका पतन नहीं होता है। इसके विपरीत अगर वृत्ति-भावना में पाप है तो वह स्थूलक्रिया में परिणत न होने पर भी पाप है और यह पाप पतन का कारण है । वृत्ति में पाप न होने पर होने वाली क्रिया आत्मा के पतन का कारण नहीं होती जबकि वृत्ति सदोष हो तो वह अधर्म - पाप आत्मा पतन का कारण होता है । इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि क्रिया से सर्वथा मुक्त न होने पर भी अपनी वृत्तियों से सदा अहिंसक रहना चाहिए। जो व्यक्ति वृत्ति से अहिसक है वह पापकर्म से मुक्त है । अतएव अहिंसा को अपने व्यवहार में उतारना चाहिए ।
ऊपर वृत्ति से हिंसक रहने का कहा गया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि क्रिया चाहे जैसी की जाय तो कोई दोष नहीं है । सूत्रकार का आशय यह है कि जिसकी वृत्ति में सच्ची अहिंसा आ गई है वह कभी उपयोगशून्य क्रिया करता ही नहीं है। वह स्वयं उपयोगशून्य क्रिया नहीं करता है इतना ही नहीं वरन् दूसरों की अविवेकी क्रियाओं को वह देख भी नहीं सकता है। दूसरों को ऐसी विचारशून्य क्रिया करते हुए देखकर उसे दुख होता है । वह चुपचाप हिंसा को देखा नहीं करता परन्तु उसका विरोध भी करता है । जो स्वयं पापरहित होता है उसे यह भावना होती है कि वह दूसरों को भी पापरहित बनावे | इसलिए जब वह दूसरों को पाप करते हुए देखता है तो उसे दुख और लज्जा प्रतीत होती है ।
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