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पञ्चम अध्ययन तृतीयोद्देशक ]
[ ३८१
जबकि आध्यात्मिक विजेता संसार में धर्म, नीति एवं सदाचार का आदर्श उपस्थित करके असंख्य प्राणियों के कल्याण का कारण बनता है। बाह्य संग्राम में विजय पाना सरल है लेकिन आन्तरिक शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना कठिन है। क्योंकि आन्तरिक शत्रु इतने सूक्ष्म हैं और हृदय के ऐसे गुप्तस्थानों में जमे रहते हैं कि उनका भेदना कठिन हो जाता है । वे बाह्यस्थूल साधनों से नहीं भेदे जा सकते। उन्हें भेदने के लिए उतने ही सूक्ष्म साधनों की आवश्यकता है । इसलिए अगर मोक्ष के अविचल एवं शाश्वत सिंहासन पर आरूढ़ होने की तीव्र उत्कंठा है तो बहिरृष्टि का त्याग करके अन्तर्दृष्टि प्राप्त करो । उस अन्तर्दृष्टि द्वारा हृदय के अन्तरतम में छिपे हुए दुर्गुणों को पहचानो और उन पर विजय प्राप्त करो । यही आन्तरिक विजय तुम्हें मोक्ष के सिंहासन पर आरूढ़ करेगी ।
यहाँ एक आशंका की जा सकती है कि युद्ध तो दो विरोधी वस्तुओं के विद्यमान होने पर हो सकता है। आत्मा तो एक ही है । तो एक ही वस्तु में युद्ध कैसे हो सकता है। दूसरी बात अपने आप में 'क्रिया का विरोध देखा जाता है । जैसे सुतीक्ष्ण तलवार अपने आपको नहीं काट सकती। तो आत्मा स्वयं कैसे युद्ध कर सकता है। इसका समाधान यह है कि यहाँ आत्मा की अवस्थाओं के साथ में भेद विवक्षा है । अर्थात् आत्मा में शुभ परिणति और अशुभ परिणति रूप दो वस्तुएँ स्वीकार की गई हैं । आत्मा ( विकृत दशापन्न) में सात्विक प्रकृत्तियां और तामसिक प्रकृतियां विद्यमान हैं। तामसिक प्रकृतियों के विरुद्ध क्रान्ति करके सात्विक प्रकृतियों को वेग देना चाहिए । सात्विक प्रकृतियों और तामसिक प्रकृतियों
युद्ध का नाम ही आत्म- युद्ध है । ये इन्द्रियां और मन विषयसुख के अभिलाषी होकर तामसिक प्रवृत्ति करते हैं उन्हें रोक कर सन्मार्ग पर लगाने के लिए उनसे युद्ध करने की आवश्यकता है । आन्तरिक शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने पर सर्व प्रकार से सिद्धि हो जाती है । अतएव आत्म-युद्ध करना चाहिए । इसीसे मोक्ष है।
आगे चल कर सूत्रकार फरमाते हैं कि आत्म-युद्ध करने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ है। यह मानवीय औदारिक शरीर भाव-युद्ध करने के लिए अच्छा संयोग है । अन्य देहों में — योनियों में — भाव - युद्ध करने के अनुकूल साधन इतने नहीं हैं जितने मानव देह में विद्यमान हैं । इसीलिये इस मानव-देह की सर्वश्रेष्ठता कही गई है । मनुष्य जैसा मननशील - विवेकशील प्राणी दूसरा नहीं है । यह अनुपम मानवदेह प्राप्त कर - आत्म-युद्ध का अनुकूल वातावरण प्राप्त कर आत्म-युद्ध के लिए कटिबद्ध हो जाना चाहिए। इस भाव युद्ध के योग्य शरीर को प्राप्त करके कोई २ उसी भव में सकल कर्मों का क्षय करके मोक्ष को प्राप्त करते हैं जिस तरह मरूदेवी माता ने मोक्ष प्राप्त किया। कोई सात या आठ भव में मोक्ष में जाते हैं यथा भरतादि । कोई पापुद्गल परावर्तन में मुक्ति पाते हैं और कोई २ ऐसे व्यक्ति हैं जो इस अमूल्य अवसर को यों ही खो देते हैं । वे भाव-युद्ध में विजयी नहीं हो सकते श्रतएव वे कदापि सिद्ध नहीं होते यथा भव्य जीव । इन सब बातों का विचार करके आध्यात्मिक संग्राम में विजय प्राप्त करना चाहिए ।
जहित्थ कुसलेहिं परिन्नाविवेगे भासिए, चुए हु बाले गन्भाइसु रजई, अस्सि चेयं पवुच्चड़, रूवंसि वा बसि वा ।
संस्कृतच्छाया(—यथाऽत्र कुशलैः परिज्ञाविवेक: भाषितः ( स तथैव श्रद्धेय इति शेषः ) च्युतो गर्भादिषु रज्यते, अस्मिन् चतत् प्रोच्यते रूपे वा क्षणे वा ।
बाल:
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