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[ आचाराङ्ग-सूत्रम्
यहां यह शंका की जा सकती है कि पृथ्वीकाय में उपर बतलाये हुए उपयोगादि लक्षण नहीं पाये जाते हैं क्योंकि वे व्यक्त नहीं हैं। परन्तु इसका समाधान यह है कि यद्यपि पृथ्वीकाय में उपर्युक्त लक्षण अव्यक्त जरूर हैं तदपि अव्यक्त होने से उनका निषेध नहीं किया जासकता है। जैसे किसी पुरुष ने अत्यन्त मादक मदिरा का पान अत्यधिक मात्रा में किया हो और ऐसा करने से पित्तोदय के कारण वह बेभान और मूर्षित हो जाता है तथा उसकी चेतना शक्ति अव्यक्त हो जाती है लेकिन इतने से ही उसे अचित्त नहीं कहा जा सकता । ठीक इसी तरह पृथ्वीकायादि में चेतना शक्ति अव्यक्त है परन्तु उसका निषेध नहीं किया जा सकता है।
दूसरी शंका यह हो सकती है कि पत्थर आदि अत्यन्त कठिन पुद्गलरूप हैं उनमें चेतना का संभव कैसे है ? परन्तु यह शंका भी योग्य नहीं है क्योंकि हम देखते हैं कि मानव-शरीर-गत हड्डी अत्यन्त कठोर है तदपि शरीरस्थ हड्डी सचित्त कही जाती है इसी प्रकार कठोर पृथ्वी का शरीर भी जीवात्मक समझना चाहिये।
पृथ्वीकाय की सचेतनता सिद्ध करके सूत्रकार यह बता रहे हैं कि विषय-कषाय के वश बने हुए प्राणी अपने नश्वर एवं अस्थायी सुख के लिये अज्ञानता से पृथ्वीकाय के जीवों को परिताप पहुंचाते हैं। विषयादि से आतुर होकर वे अज्ञानी प्राणी स्वयं संसार की जलती हुई भीषण भट्टी में पड़कर दुःख का अनुभव करते हैं और साथ ही दूसरों को परिताप पहुंचाते हैं। क्योंकि व्यक्ति की प्रत्येक क्रिया का परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप में दूसरों पर (समष्टि पर ) जरूर असर पड़ता है।
संति पाणा पुढो सिया लजमाणा पुढो पास (१२) संस्कृतच्छाया--सन्ति प्राणिनः पृथक् सिताः लजमानान् पृथक् पश्य
शब्दार्थ:--पाणा प्राणी । पुढो पृथक्पृथक् रूप से । सिता रहे हुए। संति हैं। 'लजमाणा=हिंसा से शरमाते हुए को। पुढो-पृथक् । पास=देख ।
भावार्थ:-हे शिप्य ! इस पृथ्वीकाय में पृथक पृथक् जीव रहे हुए हैं अतः संयम का अनुष्ठान करने वाले, उन जीवों की हिंसा से शरमाते हुए अर्थात् उनको पीड़ा नहीं पहुंचाते हुए जीवन का निर्वाह करते हैं, उनको भी तू देख ।
विवेचन-कई वादियों का ऐसा मत है कि सारी पृथ्वी एक देवतारूप है जैसा कि उनका कथन है फि “एकदेवतावस्थिता पृथ्वी' । परन्तु सूत्रकार इस सूत्र से उनका खंडन करते हुए कहते हैं कि पृथ्वी एक देवतारूप नहीं है परन्तु अनेक जीव इसमें पृथक् २ रहे हुए हैं अर्थात् पृथ्वीकाय प्रत्येक शरीर वाली है। अनेक जीवात्मक पृथ्वी को जानकर संयमी पुरुष उसकी विराधना से बचते हैं। "हे शिष्य तू यह देख" ऐसा कहकर गुरु, शिष्य को यह बताना चाहते हैं कि यह प्रवृत्ति कुशलानुष्ठान रूप है अर्थात् पृथ्वी की विराधना से बचने में आत्म-कल्याण और संयम की साधना है।
अणगारा मो त्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्येहिं पुढविकम्मसमारंभेणं पुढविसत्थं समारंभेमाणा अगणे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ (१३)
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