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द्वितीय अध्ययन पंचमोद्देशक ]
[ १५६
अवग्रह पांच बताये गये हैं- ( १ ) देवेन्द्र का अवग्रह ( २ ) राजा का श्रवग्रह ( ३ ) गृहपति का अवग्रह (४) शय्यान्तर का अवग्रह और ( ५ ) साधर्मिक का अवग्रह |
तात्पर्य इतना है कि संयम - पालन के समस्त आवश्यक साधन साधु गृहस्थों के पास से प्राप्त करे । परन्तु पूर्ण ध्यान रखे कि यह याचना अत्यन्त विवेकपूर्ण हो । सूत्रकार " जाणिज्जा" ( परिच्छेद करे ) पद देकर यह सूचित करते हैं कि सब प्रकार से शुद्ध हो तो ही वह पदार्थ ग्राह्य है अन्यथा उसका त्याग कर देना चाहिए । इस तरह साधु सभी दोषों से मुक्त रहकर निर्दोष रीति से संयम के साधनों को ग्रहण करे। ल हारे अणगारो मायं जाणिज्जा, से जहेयं भगवया पवेइयं, लाभुत्ति न मज्जिज्जा, लाभुत्ति न सोइजा, बहुपि लद्धुं न निहे परिग्गहाओ surti वसकिज्जा रहा णं पासए परिहरिजा ।
संस्कृतच्छाया -- लब्धे हारे, अनगारो मात्रां जानीयात्, तद् यथेदं भगवता प्रवेदितं लाभ इति न माद्येत, श्रलाभः इति न शोचयेत्, बह्वपि लब्ध्वा न निदध्यात्, परिग्रहादात्मानमपष्वष्केद् अन्यथा पश्यकः परिहरेत् ।
शब्दार्थ--लद्ध आहारे=आहार के प्राप्त होने पर | अणगारो = साधु
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मायं = मात्रा - प्रमाण को । जाणिजा = जाने । से जहेयं = जैसा कि । भगवया = भगवान् ने । पर्वइयं = कहा है । लाभुति = प्राप्ति होने पर । न मजिजा=अभिमान न करे । अलाभुत्ति नहीं मिलने पर । न सोइजा = शोक न करे । बहुपि लद्ध = अधिक प्राप्त होने पर । न नि= संग्रह न करे । परिग्गहाओ = परिग्रह से । अप्पा = अपनी आत्मा को । श्रवसक्किजा = दूर रक्खे | अण्णा - गृहस्थों से भिन्न रूप से । पासए देखता हुआ । परिहरिजा = ममत्व का त्याग करे ।
भावार्थ - प्राहारादि की प्राप्ति के समय साधु को श्रावश्यक मात्रा ( प्रमाण ) का ज्ञान होना चाहिए अर्थात् मर्यादित आहार ही लेना चाहिए ऐसा भगवान् ने फरमाया है । तथा साधु का यह कर्त्तव्य है कि श्राहारादि की प्राप्ति होने पर इस प्रकार अभिमान न करे कि 'मैं कैसा लब्धि वाला हूँ' तथा आहारादि न मिलने पर ऐसा शोक न करे कि 'मैं कैसा अभागा हूँ' । अधिक पदार्थ मिलने पर संग्रह नहीं करे और अपने आपको परिग्रह से बचावे तथा धर्मोपकरणों को भी परिग्रह रूप नहीं देखकर मात्र साधन समझ कर उनपर भी ममत्व भाव नहीं रखना चाहिए ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में मर्यादित आहारादि लेने का तथा अभिमान और परिग्रह से मुक्त रहने का उपदेश दिया गया है। सच्चे साधु का यह कर्त्तव्य है कि आहारादि ग्रहण करते समय यह सोचे कि मेरे महारादि ग्रहण करने से गृहस्थ को किसी प्रकार की बाधा तो न होगी और उसे नया आरम्भ समारम्भ तो न करना पड़ेगा । इस प्रकार विचार कर साधु को गृहस्थ के पास से परिमित आहार ग्रहण करना चाहिए
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