________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
www.kobatirth.org
लोक-विजय नाम द्वितीय अध्ययन
-पञ्चमोद्देशक
पूर्व उद्देशक में भोगों से निवृत्ति करने का उपदेश दिया गया है । उस उपदेश के अनुसारजोप्राणी संसार की असारता को जानकर तथा भोगों से पराङ्मुख होकर मोक्ष की अभिलाषा से पंचमहाव्रत रूप संयम अंगीकार करता है, उस अखण्ड अहिंसा के उपासक के सामने देह-परिपालन का प्रश्न उपस्थित होता है। आहार के बिना देह का यथावत् निर्वाह असंभव है और देह-निर्वाह के बिना संयम का पालन संभव नहीं है। आहार की निष्पत्ति में हिंसा अनिवार्य है । अग्नि, वायु, जल आदि की हिंसा के विना
आहार तैयार नहीं हो सकता है । ऐसी अवस्था में संयमियों का क्या कर्त्तव्य है ? वे लेशमात्र भी हिंसा नहीं कर सकते और संयम की साधना का भी त्याग नहीं कर सकते । तब उन्हें क्या करना चाहिए ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए सूत्रकार आगामी सूत्र में फरमाते हैं कि ऐसे अहिंसक संयमी को संयमीजीवन के निर्वाह के लिए लोक-निश्रा से ( गृहस्थजन आश्रित होकर ) विचरना चाहिए। क्योंकि "शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्” (शरीर धर्माराधन का प्रथम साधन है) इस न्याय के अनुसार देहसाधन के बिना धर्म-साधन नहीं हो सकता और देह-साधन आहार के बिना नहीं हो सकता-अतः लोकनिश्रा से विचरने के लिए कहा गया है। संयमियों के लिए निम्न श्लोक में निश्रापदों का वर्ण किया गया है
धर्म चरतः साधोर्लोके निश्रापदानि पञ्चापि ।
राजा गृहपतिरपरः षट्काया गणशरीरे च ॥ अर्थात्-धर्म का आचरण करने वाले मुनि के लिए संसार में, राजा, गृहस्थ, षट्काय, साधुसमूह और शरीर ये पाँच आश्रय-स्थान कहे गये हैं।
___ आत्म-साधक संयमी साधु जनसमाज का प्रत्यक्ष अथवा परोक्षरूप से कल्याण करते हैं । जनसमाज को अधिक से अधिक देकर वे केवल देहनिर्वाह के लिए जनता से आवश्यक साधन सामग्री भिक्षा वृत्ति द्वारा प्राप्त करते हैं। संयमी प्राणी की नस नस में, रोम रोम में और अणु अणु में अहिंसा और संयम इस प्रकार व्याप्त हो जाते हैं कि वह संयम के लिए आवश्यक आहारादि सामग्री प्राप्त करने में भी अहिंसा और संयम का सूक्ष्म से सूक्ष्म ध्यान रखता है । अहिंसा और संयम की मर्यादा को बराबर समझता हुआ विवेकी साधक आहार की शुद्धि और अशुद्धि पर पूरा पूरा लक्ष्य देता है। क्योंकि आहार को शुद्धि और अशुद्धि का असर वृत्तियों पर पड़ता है । लौकिक कहावत है कि-जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन्न । अतः आहार की शुद्धि और अशुद्धि का विवेक करना संयमी के लिए आवश्यक है।
जिनेश्वर प्रभु ने संयमियों के लिए वृत्ति का ऐसा सुन्दर उपाय बताया है जिसके अनुसरण से साधु के शरीर का पालन भी होता है और संयम की आराधना भी यथावत् होती है । गृहस्थ-वर्ग अनेक
For Private And Personal