Book Title: Acharanga Sutram
Author(s): Saubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
Publisher: Jain Sahitya Samiti

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Page 625
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५५२ ] [ श्राचाराग-सूत्रम् शब्दार्थ-भेउरेसु नश्वर । बहुतरेसु वि=विपुल । कामेसु कामभोगों में । न रजिजा= राग न करे । धुववन्न-अचल कीर्ति रूप मोक्ष का । संपेहिया विचार कर । इच्छालोभं किसी प्रकार की इच्छा-निदान का । न सेविजा=सेवन न करे ॥२३॥ सासएहि-शाश्वत-अक्षय वैभव के लिए । निमंतिजा कोई निमन्त्रण करे । दिव्वमार्य= देवता की माया में। न सहहे श्रद्धा न करे । माहणे-मुनि । सव्वं नूमं सब प्रकार की माया को । विहूणिया दूर कर । तं पडिबुज्म-सत्य वस्तु को समझे ॥२४॥ सबढेहि सब प्रकार के पदार्थों में । अमुच्छिए-गृद्ध नहीं होता हुआ । आउकालस्स पारए-जीवन के पार पहुंचता है। तितिक्वं-सहनशीलता को । परमं णचा श्रेष्ठ जानकर । विमोहन्नवरं किसी भी प्रकार का पण्डितमरण । हियं-हितकर है अतः उसका सेवन करे ॥२५॥ भावार्थ-मुनि विपुल कामभोगों को नश्वर जानकर उनमें राग न करे । अचल कीर्ति रूप मोक्ष का विचार करके किसी प्रकार की इच्छा-निदान का सेवन न करे ॥२३॥ ऐसे मुनि को कोई अक्षय वैभव ग्रहण करने के लिए निमंत्रित करे अथवा कोई देव नाना प्रकार की ऋद्धि ग्रहण करने के लिए निमंत्रित करे या देवांगना रमण करने की प्रार्थना करे तो उत्तम मुनि उसमें श्रद्धा न करे । मुनि सब प्रकार की माया ( कर्म ) को दूर कर सत्यस्वरूप को समझे ॥२४॥ सब पदार्थों में गृद्ध न होते हुए वह मुनि जीवन के पार पहुँच जाता है। सहिष्णुता को सर्वोत्तम समझ कर इन हितकर पंडितमरणों में से किसी भी एक का सेवन करे । ऐसा मैं कहता हूँ । विवेचन-पूर्ववर्ती गाथाओं में प्रतिकूल परीषह-उपसर्गों को सहन करने के लिए कहा गया है अब यहाँ अनुकूल-परीषहों के आने पर अविचलित रहने का उपदेश दिया गया है। प्रतिकूल-उपसगों की अपेक्षा अनुकूल-उपसों से विचलित होने की अधिक सम्भावना रहती है अतः अनुकूल-संयोगों में विशेष जागृति रखना चाहिए। मुनि की इस प्रकार की विशिष्ट साधना से प्रभावित होकर कोई श्रद्धालु और भावुक राजा आदि भोगों के लिए निमन्त्रण करे, विविध रीति से कन्यादान आदि देना चाहे तो मुनि मन से भी उसे ग्रहण करने की इच्छा न करे। मुनि भलीभांति जानता है कि ये कामभोग नश्वर और क्षणिक हैं। इनमें कोई सार नहीं है । असार के लिए वह सारभूत तत्त्व को नहीं हार सकता। कामेसु बहुतरेसु वि" के स्थान पर 'कामेसु बहुलेसु वि' ऐसा भी पाठान्तर पाया जाता है। दोनों का तात्पर्य एक ही है। इस विधि का अनुष्ठान करने वाले व्यक्ति को इस बात का मुख्य रूप से ध्यान रखना चाहिए कि वह ऐहलौकिक या पारलौकिक प्राशंसाओं में न फंस जाय । सदा मुनि अपने तप के फल के रूप में किसी सांसारिक वस्तु की अभिलाषा नहीं कर सकता। जो व्यक्ति तप के फल के रूप में सांसारिक कामना की For Private And Personal

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