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पश्चम अध्ययन प्रथमद्देशक ]
[ ३५३
बहुलोभे= बहुत लोभी | बहुर = अनेक पापों में रत । बहुनडे - नट की तरह वेश बदलने वाला । बहुसढे=बहुत धूर्त | बहुसंकप्पे - दुष्ट श्रध्यवसाय वाला । आसवसची - हिंसादि आस्रवों में गृद्ध । पलिउच्छन्ने = दुष्कर्मों से युक्त होकर भी । उट्ठियवायं = अपनी तारीफ का । पवयमाणे = बकवाद करते हुआ । मामे के दक्खु = कोई मुझे अकर्म करता न देख ले | अन्नाणपमायदोसेणं= अज्ञान और प्रमाद के दोष से । सययं = निरन्तर । मूढे =मू ढबना हुआ | धम्मं=धर्म को | नाभि जाणइ = नहीं समझता है | माणव = हे मनुष्य ! जे=जो । अणुवरया=जो पापानुष्ठान से नहीं निवृत्त हुए हैं । विजाए = अज्ञान से | पलिमुक्खं मोक्ष का । बहु कथन करते हैं । अट्टा पया=चे दुखी जीव | कम्मकोविया - कर्म करने में कुशल हैं। वट्टमेव संसार में ही । अणुपरियति - परिभ्रमण करते हैं । त्ति बेमि= ऐसा मैं कहता हूँ ।
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भावार्थ - हे जम्बू ! कितने ही साधु स्वच्छन्द होकर अकेले विचरने लगते हैं । उनके दोष ही कहते हैं कि वे स्वच्छंदाचारी होकर एक चर्या करते हैं । वे बहुकोधी, बहुमानी, बहुकपटी, बहुलोभी, बहुपापी, बहुदंभी, बहुत वेष करने वाले, दुष्ट वासना वाले, हिंसक और कुकर्मीं होते हुए भी "हम तो धर्म के लिए विशेष उद्यत हुए हैं” इस प्रकार बकवाद करते हुए "कोई पाप - सेवन करते हुए हमें न देख ले इस भय से अकेले विचरते हैं । वे अज्ञान और प्रमाद से निरन्तर मूढ बनकर धर्म को नहीं समझ सकते हैं । हे मनुष्यो ! जो पाप के अनुष्ठान से निवृत्त नहीं हुए हैं और स्वयं अज्ञानी होते हुए भी मोक्ष की बात करते हैं वे दुखी प्राणी बेचारे कर्म करने में ही कुशल होते हैं, धर्म में नहीं; ऐसे जीव संसार के चक्र में ही परिभ्रमण करते हैं ।"
विवेचन -- इस सूत्र में एकलविहार का सख्त विरोध किया गया है। कई बार संयमी साधक अपनी भूल को समझ कर भी उसको नहीं सुधारना चाहता है और स्वच्छन्द बन जाता है। अन्य संयमी सहयोगियों के बीच रहने से उसकी स्वच्छन्दता में बाधा आती है इसलिये वह एक चर्या करने लगता है अर्थात् केला ही विचरने लगता है। उसकी यह एक चर्या. स्वच्छन्दाचार से प्रेरित होने के कारण प्रशस्त है।
एक चर्या (एकलविहार) दो प्रकार की है— प्रशस्त एक चर्या और अप्रशस्त एक चर्या । इनमें से प्रत्येक के दो भेद हैं- द्रव्य और भाव । द्रव्य से अप्रशस्त एक चर्या का स्वरूप यह है - विषय की लालसा से या कषायों की तीव्रता के कारण एकाकी विहार करना । भाव से अप्रशस्त एक चर्या नहीं हो सकती है क्योंकि भाव से एक-चर्या होना याने रागद्वेष से रहित होना । रागद्वेष से रहित होना अप्रशस्त नहीं है अतएव भाव से अप्रशस्त एक चर्या संभव नहीं है । द्रव्य से प्रशस्त एक चर्या - प्रतिमाधारी अथवा जिनकल्पी या संघादि के कार्य के निमित्त स्थविरकल्पी का अकेला विचरना है । भाव प्रशस्त एक चर्या तीर्थंकरों की होती है। तीर्थंकर संयम अंगीकार करते हैं तब से लगा कर जब तक केवलज्ञान उत्पन्न न हो वहाँ तक छद्मस्थ अवस्था में वे अकेले रहते हैं यह भाव से प्रशस्त एक चर्या है। अन्य सबका एकल विहार प्रशस्त है। प्रशस्त द्रव्य एक-चर्या का उदाहरण टीकाकार ने इस प्रकार दिया है:
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