________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
१०८ ]
[ आचाराङ्ग-सूत्रम्
विवेचन-सच्चे विमुक्त पुरुष की व्याख्या करते हुए सूत्रकार फरमाते हैं कि वह पारगामी होता है। पार शब्द का अर्थ मोक्ष है, क्योंकि मोक्ष संसार रूपी समुद्र का किनारा है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये मोक्ष के कारण है अतः कारण में कार्य का उपचार करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही मोक्ष हैं। इससे यह अर्थ फलित होता है कि जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र के पालन करने वाले हैं, इन प्रशस्त भावों में रमण करने वाले हैं वे ही सच्चे द्रव्य से धन-धान्य और स्वजन तथा भाव की अपेक्षा विषयकषाय मुक्त हुए कहे जाते हैं। सच्ची मुक्ति प्राप्त करने के लिए. यह आवश्यक है कि लोभ को निर्लोभवृत्ति से जीता जाय । लोभ सर्वस्व नाश करने वाला है और कषायों में मुख्य है यह बताने के लिए उसका ग्रहण किया है। आपकश्रेणी प्रारम्भ कर चुकने पर भी और बाकी के कषायों से निवृत्त हो जाने पर भी संज्वलन लोभ कषाय शेष रह जाता है। लोभ सभी गुणों का घातक है। इसलिए लोभ के ग्रहण करने से शेष कषायों का भी ग्रहण समझ लेना चाहिए। जैसे क्रोध को शान्ति से दूर करे,मान को मृदुता से निवारे और माया का सरलता से निवारण करना चाहिए । लोभी मनुष्य कार्याकार्य के विवेक से शन्य, साध्य और असाध्य के विचार से रहित होता है और केवल अर्थ सम्बन्धी दृष्टि होने से सभी पाप क्रियाएँ करता है। कहा है
घावेइ रोहणं, तरइ सायरं, भमइ गिरिणिकुंजेषु । मारेइ बंधवंपि पुरिसो जो होइ धालुद्धो ॥ अडइ बहुं वहइ भरं सहइ छुहं पावमायरइ धिट्ठो।
कुलसीलजाइपञ्चयाधिइं च लोभद्दुओ चयइ ॥ जो मनुष्य धन का लोभी होता है वह बड़े बड़े विषम स्थानों में दौड़ता है, समुद्रों का उल्लंघन करता है, पहाड़ों और वनों में भदकता है, और अपने भाई को भी मार डालता है। बहुत परिभ्रमण करता है, देश-विदेशों में घूमता रहता है, भार लादता है, क्षुधा पिपासा सहन करता है और पाप का
आचरण निर्भयता से करता है । लोभी मनुष्य अपने कुल, जाति और अपने शील तक की मर्यादा को भंग कर देता है। - जो इस भयंकर लोभ को अलोभ द्वारा जीत लेते हैं वे प्राप्त हुए कामों का और विषयों का सेवन नहीं करते हैं। जो शरीर के लोभ से भी परे हो जाते हैं भला फिर कामादि विषयों में उनका लोभ कैसे हो सकता है ? जिस प्रकार ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने विविध प्रकार के सांसारिक विषयवासना रूप प्रलोभनों द्वारा चित्तमुनि को आमंत्रित किया, परन्तु चित्तमुनि तो अन्तःकरण से लोभ और विषयों का त्याग कर चुके थे उन्हें अपने शरीर तक का लोभ और मोह न था तो भला क्या वे इन तुच्छ प्रलोभनों के चक्कर में फँसेंगे ? उन्होंने ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के आमंत्रणों को ठुकराते हुए उसे भी त्यागमार्ग के लिए उपदेश दिया था।
- साधक अवस्था के लिए प्रथम यह आवश्यक है कि लोभ का त्याग किया जाय । जहाँ तक यह लोभ बना रहता है वहाँ तक साधक को अपनी साधना में बड़ी कठिनता होती है । लोभ का त्याग करने पर ही साधुता आती है और ऐसी साधुता ही आत्मा का साक्षात्कार करा सकती है और इस तरह ऐसी साधुता से आत्मा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बन जाती है। इसलिए सूत्रकार ने लोभ पर विजय प्राप्त कर अनगार वृत्ति ग्रहण करने पर शीघ्र कर्मरहित होकर यह जीवात्मा सर्वज्ञानी और सर्वदर्शी बन जाता है यह प्रतिपादन किया है। इस प्रकार विचार कर जो प्राणी लोभ की अभिलाषा तक नहीं करता है वही अनगार कहलाता है, लोभ के नष्ट होने पर "अकर्मा" हो जाता है यह कहने का मतलब यह है कि संज्वलन
For Private And Personal