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शृतीय अध्ययन द्वितीयोद्देशक ]
[ २३
विवेचन - इसके पहिले के सूत्र में त्यागी के गुणों का वर्णन किया गया है। इस सूत्र में भी यागी को और किन किन मुख्य गुणों की आराधना करनी चाहिए सो बताया गया है।
यह संसार रूपी वृक्ष चार कषायों द्वारा सिञ्चित होकर हरा-भरा रहता है । अगर संसार - वृक्ष की सुखाने की भावना है तो इन कषायों का नाश करना पड़ेगा। अतएव सूत्रकार ने यह बताया है कि ata का और क्रोध के कारण रूप मान का हनन करो। चार कषायों में से क्रोध और मान तो द्वेषमूलक हैं और माया व लोभ रागमूलक हैं । यहाँ क्रोध का कारण मान बताया गया है। वास्तव विश्लेषण किया जाय तो उसके अन्दर मान छिपा हुआ मिलेगा। मान के कारण ही जीव को क्रोध ता है। क्रोध के मूल में अहंकार छिपा है । अतएव त्यागी साधक के लिए मान और क्रोध का त्याग करना आवश्यक है । क्रोध और मान साधक को साधना से भ्रष्ट कर देते हैं। अनेक भवों की तपस्या क्रोध के कारण भस्म हो जाती है। क्रोध से सारी साधना निष्फल हो जाती है अतएव क्रोध और मान का त्याग करना चाहिए ।
द्वेषमूलक कषायों का निषेध करके अब रागमूलक कषायों का निषेध करते हैं । रागमूलक कषाय में लोभ मुख्य है और लोभ के कारण माया का सेवन किया जाता है। लोभ का अनिष्ट फल बताकर सूत्रकार ने उसको त्यागने का फरमाया है। लोभ का फल नरक बताया गया है। लोभ की स्थिति और लोभ का विपाक महान् है । संज्वलन लोभ सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थान तक रहता है और लोभ के कारण सातवीं नारकी में जीव को यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं। आम
हा है:
मच्छा मणुआ य सत्तमिं पुढवीं ।
अर्थात्- महालोभाभिभूत मनुष्य और मत्स्य सातवीं नरक में जाते हैं। महालोभ का फल सप्तम नारी समझ कर लोभ से विरत होना चाहिए। महालोभ से आकृष्ट होकर प्राणी भयानक वधादि प्रवृत्ति करके नरक के भागी बनते हैं अतः जो लघुभूतगामी- मोक्षार्थी हैं उन्हें हिंसा से और संसार के प्रवाह से निवृत्त होना चाहिए । यहाँ सूत्र में "सोयं" पद दिया हुआ है इसका संस्कृत रूप शोक और स्रोत दोनों होते हैं। शोक अर्थ करने पर यह मतलब होता है कि शोक संताप का छेदन करे और स्रोत अर्थ करने पर यह मतलब होता है कि भावस्रोत विषयवान्छा के प्रवाह का छेदन करे ।
त्यागी साधक को और उपदेश देते हैं कि परिग्रह की परिज्ञा करो । परिग्रह को ज्ञ-परिज्ञा द्वारा हितकर समझो और प्रत्याख्यान परिज्ञा द्वारा उसका त्याग करो। अगर सूक्ष्म परिग्रह की भी कामना है तो संयम का सच्चा आनन्द नहीं प्राप्त हो सकता । हे त्यागी साधको ! अगर संयम का सच्चा श्रानन्द उठाना चाहते हो तो परिग्रह की कामना का इसी क्षरण परिहार करो। विषयवाच्छा रूप संसार के प्रवाह को छेद दो और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करो । यह मनुष्य जीवन रूपी अमूल्य अवसर तुम्हारे हाथ लगा है । इसी जीवन में मोक्ष की सम्पूर्ण साधना हो सकती है अन्यत्र नहीं। इसलिए यह मनुष्य जीवन देवों के जीवन से भी अत्यधिक श्रेष्ठ है। ऐसे निर्वाण के सुख को देने वाले मनुष्य-भव को प्राप्त करके और उसमें भी संयम के इतने ऊँचे स्थान पर आकर इतनी ऊँची भूमिका पर पहुँचकर प्राणिवध रूप प्रमाद का सेवन नहीं करना चाहिए |
यह संसार रूपी सरोवर मिध्यात्व रूपी शैवाल से ( काञ्जी से ) श्राच्छादित है । अनन्त शुभ पुण्यों के फल-स्वरूप इस जीवरूपी कछुए को श्रुति, श्रद्धा और संयम में वीर्य रूप उन्मज्जन ( उच्चस्थान )
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