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५१८]
[आचाराग-सूत्रम्
'त्यागी साधक अपने स्थान पर लाई हुई भिक्षा की सामग्री नहीं ग्रहण करता है। अब इस सूत्र में सूत्र
कार यह बता रहे हैं कि मुनि साधक गृहस्थ के घर पर गौचरी (भिक्षा) के लिए जाय तो उसे वहाँ भी कितना सतर्क और सावधान रहना चाहिए । मुनि-साधक का जीवन समाज पर अथवा किसी व्यक्ति पर भाररूप न हो यह विशेषतः इष्ट होने से इस तरह का विधान किया गया है।
कोई भद्रपरिणामी गृहस्थ त्यागी साधक को कहीं श्मशानादि में या अन्यत्र कहीं विचरते हुए देखकर उन्हें अञ्जलि जोड़कर वन्दन करे और मन ही मन में यह संकल्प करे कि इन त्यागी मुनि को विविध प्रकार से अशनादि तैयार करके भोजन कराना चाहिए अथवा इनके रहने के लिए कोई मकान बनवा देना चाहिए या मकान की मरम्मत करा देनी चाहिए। वह गृहस्थ अपने मन के विचार को व्यक्त नहीं करता है और घर जाकर विविध प्रकार के अशनादिक तैयार करता है या मकान बनवाता है और वह मुनि-साधक को देना चाहता है। ऐसे प्रसंग पर यदि साधक को अपनी बुद्धि द्वारा या मनोविज्ञान के द्वारा अथवा तीर्थङ्कर के प्ररूपित मार्ग के द्वारा अथवा उसके सगे सम्बन्धियों द्वारा यह मालूम हो जाय कि इस भावुक गृहस्थ ने मेरे लिये ही यह अन्नादि बनाया है अथवा मेरे निमित्त ही मकान तैयार किया है तो साधक उस गृहस्थ को यह साफ साफ सूचित कर दे कि इस प्रकार का श्राहार अथवा स्थान में कदापि ग्रहण नहीं कर सकता। मुनि-साधक के निमित्त से अगर आहार या मकान या और कोई वस्तु प्राणी, भूत, जीव और कोई सत्त्वों की हिंसा द्वारा तैयार की जाती है तो वह त्यागी साधक के लिए अकल्पनीय है । मुनि-साधक अपने निमित्त से बनने वाली कोई वस्तु नहीं ग्रहण कर सकता है। अगर वह ग्रहण करता है तो वह हिंसा का भागी होता है । मैं तुम्हारा ऐसा आहार या अन्य पदार्थ ग्रहण करने में विवश हूँ। साथ ही अगर वह गृहस्थ समझदार है तो उसे साधु के आचार-विचारों का बोध करावे
और निर्दोष दान देने का महत्त्व समझावे । कल्पानुसार दान करने से भव्यजन शीघ्र दुखरूपी समुद्र को तिर जाते हैं जैसे कि जहाज द्वारा वणिक समुद्र से पार होते हैं। दान में यह ध्यान रखना चाहिए कि वह दानयोग्य काल, देश, पात्र और कल्प में है या नहीं ? योग्य काल में, योग्य पात्र में, योग्य स्थान में कल्प के अनुसार श्रद्धासहित दिया गया दान ही सात्विक दान है । कहा भी है:
काले देशे कल्प्यं श्रद्धायुक्तेन शुद्धमनसा च । सत्कृत्य च दातव्यं दानं प्रयतात्मना सद्भ्यः ॥
इस प्रकार उस भावुक गृहस्थ को कल्पानुसार दान का महत्व समझावे । लेकिन ऐसा उद्देश्यपूर्वक तैयार किया हुआ आहारादि ग्रहण न करे। इसी में मुनि साधक की दृढ़ता है।
भिक्खं च खलु पुट्ठा वा अपुट्ठा वा जे इमे पाहच गंथा वा फुसंति से हंता हणह, खणह, छिदह, दहह, पयह अालुंपह विलुपह, सहसाकारह, विप्परामुसह, ते फासे धीरो पुट्ठो अहियासए, अदुवा अायारगोयरमाइक्खे तकिया णमणेलिसं अदुवा वइगुत्तीए गोयरस्स अणुपुब्वेण सम्म पडिलेहए अायत्तगुत्ते बुद्धेहिं एवं पवेइयं ।
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