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४६८]
[प्राचाराग-सूत्रम्
संसर्ग से तथा उनके अन्धानुकरण से सच्चे परन्तु अनुभवशन्य साधक में क्या क्या दोष पैदा हो जाते हैं इसका दिग्दर्शन सूत्रकार स्वयं कर रहे हैं। साधना के मार्ग में हिंसा, परिग्रह और कदाग्रह ये तीन भयंकर दुर्गण हैं कुसंग से ये तीनों दोष उस साधक में उत्पन्न हो जाते हैं। वह साधक उनका अंधानुकरण करके स्वयं हिंसा करने लगता है, अन्य से प्रारम्भ करवाता है और प्रारम्भ करते हुए का अनुमोदन करने लगता है। संसार में अनेक पंथ, मत, महजब प्रचलित हैं। अनेक पंथ के नायक सावदा श्रारम्भमय उपदेश देते हैं । उनका अनुकरण करके अपरिपक्व साधक भी वैसा करने लगता है । वे जैसे अदत्त वस्तु ग्रहण कर लेते हैं उसी तरह वह भी करने लगता है। वे लोग अपने वचन-चातुर्य से अपनी बातों को सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं। अपने माने हुए पक्ष को ही सम्पूर्ण सत्य मानने की धृष्टता करते हैं। उनके संग से साधक में भी यह दुर्गुण प्रवेश पा सकता है और वह सम्यग्दर्शन से पतित हो सकता है । अतएव यह संग क्षम्य नहीं हो सकता ।
सूत्रकार ने प्रथम व्रत के बाद तृतीय व्रत का कथन किया है तत्पश्चात् द्वितीय व्रत का । इसका क्या कारण है ? ऐसा करने का प्रयोजन यह है कि प्रथम और तृतीय व्रत में अल्पवक्तव्यता है अर्थात् संक्षेप में इनका कथन किया है और दूसरे व्रत के विषय में अधिक वक्तव्यता है अतएव प्रथम व तृतीय व्रत का पहिले निर्देश किया गया है ।
सूत्रकार ने इस सूत्र में विभिन्न वादों की चर्चा की है। विश्व के रंगमंच पर विविध वाद, दर्शन, धर्म और मान्यताओं की असंख्य श्रेणियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। सूत्रकार ने उस समय के प्रचलित मुख्य २ वादों और मान्यताओं का सूत्र में निर्देश किया है। उस समय के प्रचलित वादों का इन चार विभागों में समावेश किया गया है-(१) क्रियावादी (२) अक्रियावादी (३) अज्ञानवादी और (४) विनयवादी । विस्तृत रीति से इन्हीं चार के तीन सौ त्रेसठ भेद जैन-दर्शन में कहे गए हैं।
__टीकाकार ने वर्तमान काल में सुप्रसिद्ध षड्दर्शनों की मान्यता के रूप में इस सूत्र को घटित किया है। वह इस प्रकार है:
अस्थि लोए-स्थावर और जंगम, घर और अचर उभयरूप यह लोक है । इस पृथ्वी पर नव खण्ड और सात समुद्र ही हैं । कोई कहते हैं कि इस पृथ्वी के समान अनेक पृध्वियाँ ब्रह्माण्ड के जल में रही हुई हैं । जीव अपने कर्मों का फल भोग करते हैं, परलोक है, पुण्य-पाप हैं, बन्ध-मोक्ष हैं, पांच महाभूत हैं इत्यादि यह मान्यता वेदान्त के एक पक्ष द्वैतमत की है।
नत्थि लोए-चार्वाक मत की यह मान्यता है कि यह दृश्यमान जगत् इन्द्रजाल और माया है। वस्तुतः कुछ नहीं है । जो कुछ दृष्टिगोचर होता है वह स्वप्न के तुल्य मिथ्या है । परलोक नहीं है तो पुण्यपाप और बन्ध-मोक्ष कैसे हो सकते हैं, परलोक के अभाव में उसमें गमनागमन करने वाला प्रात्मा कैसे संभव है ? जो चैतन्य दिखाई देता है वह भूतों (पृथ्वी, अप , तेऊ, वायु और आकाश) का परिणाम हैं। पांच भूतों के संयोग से ही चैतन्य की अभिव्यक्ति होती है और भूतों की विघटना से ही चैतन्य का लय हो जाता है। जिस प्रकार मादक द्रव्यों से मदशक्ति प्रकट होती है उसी तरह भूतों से चैतन्य उत्पन्न होता है अथवा प्रकट होता है। वे कहते हैं:
भौतिकानि शरीराणि, विषयाः करणानि च । तथापि मन्दैरन्यस्य तवं समुपदिश्यते ॥
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