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तृतीय अध्ययन चतुर्थोद्देशक ]
[२७१
विवेचन-पूर्व सूत्र में अप्रमत्त रहने का उपदेश दिया गया है । अप्रमत्त बनने के लिए आत्मविजय एवं कषायविजय की आवश्यकता है अतएव इस सूत्र में आत्मविजय एवं कषायविजय का उपदेश दिया गया है। सूत्रकार फरमाते हैं कि जिसने एक को जीत लिया उसने संसार को जीत लिया। इसका तात्पर्य यह है कि जिसने आत्मा पर विजय प्राप्त कर ली है उसने सारे संसार पर विजय-पताका फहरा दी है और जिसने बाह्य-संसार को जितना जीता है उतने ही अंश में उसने आत्मा पर विजय प्राप्त की है । बाह्य-संसार को जीतने का अर्थ संसार के ममतामय संयोगों को त्यागने का है। यह संयोग-त्याग श्रात्मविजय का महान् साधन है।
जैसे संसार में राजा महाराजाओं के भौतिक संग्राम होते रहते हैं उसी प्रकार आत्मा की वैभाविक और स्वाभाविक शक्तियों में निरन्तर संग्राम होता रहता है । बाह्य संग्राम यदा-कदा होते हैं परन्तु यह संग्राम प्रतिपल चालू रहता है । भौतिक संग्राम का अन्त तब आता है जब कि दो पक्षों में से कोई पक्ष पराजित हो जाय उसी तरह यह आध्यात्मिक युद्ध भी तभी समाप्त होता है जब स्वाभाविक और वैभाविक शक्तियों में से किसी का सम्पूर्ण पराजय हो जाय। स्वाभाविक शक्ति अगर पराजित हो जाती है तो श्रात्मा को निगोद में सड़ना पड़ता है-उसे कारागार में कैद होना पड़ता है और अगर स्वाभाविक शक्तियों की विजय होती है तो मोक्ष का अखण्ड साम्राज्य प्राप्त होता है । इस युद्ध में एक तरफ चैतन्य राजा के, सम्यक्त्व, दशविधधर्म, पाँच समिति, तीनगुप्ति, रत्नत्रय और अप्रमाद आदि योद्धा हैं और दूसरी तरफ
राजा के मिथ्यात्व, मोह, प्रमाद, कषाय आदि सुभट भूझते है। यह आध्यात्मिक युद्ध प्रतिपल चालू रहता है । यह युद्ध चर्म-चक्षुओं से नहीं दिखाई देता है इसका अवलोकन करने के लिए अन्तर्दृष्टि प्राप्त करनी चाहिए । योगी-जन दृढ़ता पूर्वक इस संग्राम को देखते हैं और उसमें हिस्सा लेते हैं तो वे अपने शत्रुओं का समूल विनाश कर देते हैं ।
बाह्य संग्राम तो स्थूल है और स्थूल साधनों तथा पाशविक बल के द्वारा वह जीता जा सकता है परन्तु यह आध्यात्मिक युद्ध अति सूक्ष्म है इसे जीतने के लिए इतने ही सूक्ष्म साधनों की आवश्यकता है। श्रान्तरिक शत्रु अति सूक्ष्म हैं अतः उन्हें जीतने के लिए सूक्ष्म साधन और आत्म-बल की अपेक्षा रहती है अतएव सूत्रकार फरमाते हैं कि आत्म-विजय करो। भौतिक विजय से तो भूमि और धन का लाभ होता है लेकिन आध्यात्मिक विजय से त्रिलोक का ईश्वरत्व प्राप्त होता है। आध्यात्मिक युद्ध का विजेता त्रिलोक पर शासन करता है और राजा महाराजा तो क्या करोड़ों देवों का अधिपति इन्द्र भी उसकी सेवा करने में अहोभाग्य मानता है। लौकिक विजय कई बार पराजय में परिणत होती है। बड़े से बड़े सम्राट् को भी हार खानी पड़ती है लेकिन जिसने एक बार आध्यात्मिक युद्ध को जीत लिया उसे कभी हार नहीं खानी पड़ती। आध्यात्मिक विजय शाश्वत विजय है। भौतिक विजेता अपने गर्व के उन्माद में दुनिया पर कहर की आग बरसाता है जब कि आत्मिक विजेता संताप से संतप्त दुनिया पर कल्याण की सुधा सींचता है । आध्यात्मिक विजय परम विजय है । जिसने यह विजय प्राप्त कर ली है वह विश्वविजेता सम्राट् है । इसलिए सूत्रकार ने फरमाया है कि अपने आप पर विजय प्राप्त करो, तुम दुनिया में विश्व-विजयी बन जाओगे । आत्म-विजय ही परम और चरम विजय है ।
अथवा “जे एगं नामे" इस पद का अर्थ यह किया जा सकता है कि जो एक मोहनीयकर्म का क्षय करता है वह शेष दूसरे कर्मों का क्षय करता है और जो बहुत स्थिति वाली बहुत प्रकृतियों का क्षय करता है वही मोहनीय का क्षय करने में समर्थ है। वर्धमान शुभ अध्यवसायों पर चढ़ा हुआ जीव
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