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द्वितीय अभ्ययन षष्ठ उद्देशक ]
[१८१ परन्तु वे अपने मनोरथ में सफल नहीं हो सकते । सांसारिक बाल जीवों का यह प्रयत्न विष को खाकर अमर बनने की इच्छा के समान, गर्मी से व्याकुल होने पर अग्नि-सेवन के समान, शीत से पीड़ित होने पर बर्फ-सेवन के तुल्य और जीवन के लिए मृत्यु के आलिंगन के समान है इस तरह प्राणी अपने ही किए हुए पापकर्मों से दुखी होता है । सुख के उद्देश्य से किए गए उसके काम, उसके पाप दुखमय बन जाते हैं और उस दुख से किंकर्तव्यविमूढ़ बनकर वह विपरीत फल प्राप्त करता है । सुख की अभिलाषा से वह अन्य प्राणियों की हिंसा करता है व दूसरों के जन्मसिद्ध अधिकारों का अपहरण करता है । फल यह होता है कि पापकर्म करके वह दुख की परम्परा बढ़ा लेता है । कहा है:
दुःखविट् सुखलिप्सुमोहान्धत्वाददृष्टगुणदोषः ।
यां यां करोति चेष्टां तया तया दुःखमादत्ते ॥ अर्थात्-दुख से द्वेष करने वाला, सांसारिक सुख का लोभी और मोह से अन्ध होकर गुण दोष का विचार न करने वाला जो भी क्रियाएँ करता है वह उन क्रियाओं के फलस्वरूप दुख ही प्राप्त करता है। मोह शब्द अज्ञान का द्योतक भी है और मोहनीय कर्म का भेदरूप भी है। यहाँ दोनों प्रकार का मोह समझना चाहिए। इस प्रकार मोहान्ध प्राणी हित को अहित समझता है, अहित को हित समझता है, कर्तव्य को अकर्तव्य, अकर्त्तव्य को कर्तव्य, पथ्य को अपथ्य, अपथ्य को पथ्य, वाच्य को अवाच्य और अवाच्य को वाच्य समझता है । इसके कारण शारीरिक और मानसिक दुखों से पीड़ित होता है।
मूढ़ प्राणी के अन्य भी अनर्थकारी कार्य बताते हुए सूत्रकार फरमाते हैं कि वह अज्ञानी जीव अपने ही द्वारा सेवित मद्य, विषय, कषाय, विकथा और निद्रा रूप पांच प्रमादों के कारण अपने लिए हुए व्रतनियमों का भङ्ग करता है।
"पुढो वयं पकुव्वइ” इस पद का ऐसा भी अर्थ किया जा सकता है कि पुढो = पृथु, विस्तीर्ण, वयं का अर्थ "वयन्ति-पर्यटन्ति प्राणिनः यस्मिन् स वयः संसारः” इस व्युत्पत्ति के अनुसार संसार होता है। अर्थात् वह प्राणी संसार का विस्तार करता है-चिरकाल तक छःकाय में रहता है अथवा कारण में कार्य का उपचार करने से ऐसा भी अर्थ होता है कि प्रमादी प्राणी अपने कर्म से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, गर्भावास, जन्म, व्याधि, दरिद्रता, दुर्भगता आदि आदि दुखद अवस्थाओं को भोगता है।।
संसार और उक्त दुखद अवस्थाओं का वर्णन करते हुए सूत्रकार ने फरमाया है कि इस संसार में या इन अवस्थाओं में प्राणी अत्यन्त व्यथित रहते हैं । गर्भावास की विकट वेदना, व्याधियों की धमाचौकड़ी, नरकतिर्यश्च के अपरम्पार दुख और जन्म मरण की व्याथाएँ यही संसार है। यह संसार मानो एक धधकती हुई विशाल भट्टी है और प्रत्येक प्राणी इसमें कोयले की नाईं जल रहा है । यही संसार का सच्चा स्वरूप है।
___संसार के सच्चे स्वरूप का दिग्दर्शन कराने के बाद सूत्रकार उपदेश देते हुए और करुणा से आई होकर दुख से मुक्त होने का उपाय बताते हैं। वे फरमाते हैं कि हे सुखाभिलाषी प्राणियो ! अगर तुम सचमुच सुख प्राप्त करना चाहते हो तो संसार के वास्तविक रूप को समझ कर ऐसी प्रवृत्ति करो जिससे किसी भी अन्य प्राणी को पीड़ा न पहुँचे । अन्य को पीड़ा देना अपने लिए पीड़ा को बुलाना है। इसी प्रकार अन्य को सुख-शान्ति पहुँचाना अपने लिए सुखशान्ति को बुलाना है । अगर तुम दुख से छूटने की इच्छा
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