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[ आचाराङ्ग-सूत्रम्
__ अर्थात्-हे मगधाधिप श्रेणिक ! तू स्वयं अनाथ है। तू मेरा नाथ बनने चला है लेकिन स्वयं अनाथ होकर किस दूसरे का नाथ कैसे बन सकता है ? राजा श्रेणिक आश्चर्य में पड़ जाता है और मुनि उसे उसकी अनाथता बतलाते हैं । राजा ने अनुभव किया कि वस्तुतः वह अनाथ है और मैं जिन्हें अनाथ समझता था वे मुनि नाथ हैं । इस पर से यह जाना जा सकता है कि वस्तुतः क्या शरण है और क्या अशरण है ?
___ अपना नाथ बनने के लिए यह आवश्यक है कि दुनिया की चीजों से अपने आपको नाथ न समझे । दुनियाँ के पदार्थों को शरण न मानें। हिन्दू धर्म में गज-ग्राह के युद्ध का वर्णन आता है । जब तक हाथी ने अपना बल लगाया तब तक वह बराबर मगर के द्वारा खिंचा जाता रहा । ज्यों ही उसने अपना बल छोड़कर प्रभु का-आत्मा का ध्यान किया त्यों ही उसमें ऐसा बल-प्रात्मबल प्रकट हुआ कि वह मगर के पंजे से छूट गया। हमारे मन रूपी हाथी को काम, क्रोध, मोहरूपी मगर अपनी ओर खींचता है। जब तक मनुष्य तन बल, धन बल और बाह्य बल का प्रयोग करता है तब तक वह खिंचता जाता है ज्यों ही वह आत्म-बल का प्रयोग करता है-बाह्य बल को त्यागता है त्यों ही मन इस कामक्रोधरूपी मगर से छूट जाता है। बाह्य पदार्थों की अशरणता और असारता को जानकर आत्म-बल प्रकट करना चाहिए। जो आत्म-भाव को छोड़कर परभावों में शरण मानता है वह पाप कार्यों में अधिक और अधिक फंसता जाता है। इससे यह फलित होता है कि सभी बलों की कुञ्जी आत्म-बल है। आत्म-बल के सामने अन्य बल सब तुच्छ हैं। आन्तरिक बल पर ही चरित्रगठन निर्भर है। जितना आत्मिक बल प्रकट होगा उतना ही चारित्र विकसित होगा । जितना अात्म-बल कम होगा और पदार्थों की आसक्ति होगी उतनी ही पामरता आएगी । बाह्य पदार्थों की अशरणता का अनुभव ही आत्म-बल का जनक होता है । आत्मिक बल के विकास के हेतु ही चारित्र आदि का प्रतिपादन किया है। अतएव बाह्य बल को त्यागने से हीअशरण को शरणरूप न मानने से ही आत्माप्रारम्भ से छूट सकता है । यही श्रात्म-विकास की कुञ्जी है।
इहमेगेसि एगचरिया भवइ, से बहुकोहे, बहुमाणे, बहुमाये, बहुलोभे, बहुरए, बहुनडे, बहुसढे, बहुसंकप्पे, श्रासवसत्ती पलिउच्छन्ने उट्ठियवायं पवयमाणे, मा मे केइ अदक्खू अन्नाणपमायदोसेणं, सययं मूढे धम्मं नाभिजाणइ, अट्टा पया माणव ! कम्मकोविया जे अणुवरया अविजाए पलिमुक्खमाहु श्रावट्टमेव अणुपरियटृति त्ति बेभि ।।
संस्कृतच्छाया-इहमेकेषां एकचर्या भवति, स बहुक्रोधः, बहुमानः, बहुमायी, बहुलोभः, बहुरतः, बहुनटः, बहुशठः, बहुसंकल्पः, श्राश्रवसक्ती, पलितावच्छन्नः, उत्थित वादं प्रवदन्, मा मां कंचन अद्राक्षुः अज्ञानप्रमाददोषेण, सततं मूढः धर्म नाभिजानाति वार्ता प्रजाः हे मानव ! कर्मकोविदाः जेऽनुपरता अविद्यया परिमोक्षमाहु, आवर्तमेवानु परिवर्त्तत्ते इति ब्रवीमि ।
शब्दार्थ-इह इस संसार में। एगेसि एक एक प्राणी । एगचरिया भवइ अकेले विचरते हैं । से बह । बहुकोहे=बहुत क्रोधी। बहुमाणे बहुत मानी । बहुमाये=बहुत कपटी ।
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