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द्वितीय अध्ययन षष्ठं उद्देशक ]
भगवान् अन्यथावादी हो ही नहीं सकते । निष्कारण उपकार करने वाले, तीन काल और तीन लोक को हस्तामलकवत् जानने वाले, राग-द्वेष के सम्पूर्ण विजेता, त्रिलोकबन्धु तथा कृतकृत्य जिनेश्वर देव के वचन सत्य ही होते हैं। वे एकान्त करुणा से आई होकर जगज्जनों के लिए उपदेश फरमाते हैं, विधि निषेध का प्रतिपादन करते हैं और प्राणियों को दुखों से मुक्त होने का उपाय बताते हैं । भव्यजनों के लिए वीतराग की आज्ञा मार्गदर्शिका है । यही आज्ञा आकाश - दीप के समान भूले हुए पथिकों को सच्चे मार्ग पर लाती है । जो वीतराग की प्राज्ञा का पालन करते हैं वे ही मोक्ष पाने के अधिकारी हो सकते हैं अन्य नहीं । वीतराग ने जो उपदेश दिया है वह उनका पूर्ण परीक्षित और चीर्ण प्रयोग है। उन्होंने जिस मार्ग का अनुसरण किया है, जिसके द्वारा केवल ज्ञान और केवल दर्शन प्राप्त किया है और जिसके द्वारा अपना सर्वोत्कृष्ट विकास किया है वह सुन्दर से सुन्दर उपाय उन्होंने संसार को बता दिया है। उनका उपदेश शब्द रचना मात्र ही नहीं है परन्तु उन्होंने उसे अपने जीवन में व्यवहृत करके उसे व्यावहारिक और चरणी बनाया है। पूर्ण अनुभव के पश्चात् उन्होंने यह बताया कि सच्चा तत्वज्ञान करना, वस्तु के सच्चे स्वरूप को समझना, मन वचन और कर्म को संयम के मार्ग में लगा देना, निमित्तों के उपस्थित होने पर भी संयम में रुचि और विषयों में राग न करके अपनी वृत्तियों को समतोल रखना और तपस्वी जीवन व्यतीत करना यही सुख का और मोक्ष का मार्ग है । अपने लक्ष्य-मोक्ष को प्राप्त करने के लिए इसी मार्ग का अवलम्बन लेना चाहिए। यही वीतराग की आज्ञा है ।
साध्य की प्राप्ति के लिए साधना की आवश्यकता होती है। प्रत्येक वस्तु को प्राप्त करने के लिए परिश्रम - साधना अनिवार्य है । साधारण वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए भी परिश्रम अनिवार्य है तो नमोल वस्तुओं के लिए कितने श्रम और धैर्य की आवश्यकता रहती है यह सब समझ सकते हैं । परिश्रम किए बिना या अल्प परिश्रम करके फल के लिए आतुर रहने की वृत्ति को छोड़े बिना साध्य सिद्ध नहीं हो सकता । जो व्यक्ति नियत समय से पूर्व ही फल पाना चाहते हैं वे कभी सफल नहीं हो सकते । जमने के पहले आतुर होकर दही की जावनी को छेड़ना या पकने के पहले फल को तोड़कर खा जाना, अहितकर ही है। फल पाने के लिए श्रम और धीरज आवश्यक है। अज्ञानी प्राणी साधना की कठिनता से डरकर या शीघ्र फल न मिलने के कारण साधना को ही छोड़ बैठते हैं।
राग देव ने मोक्ष प्राप्ति के लिए तत्त्वज्ञान और संयम रूप मार्ग की प्ररूपणा की है । परन्तु अज्ञानी प्राणी उस मार्ग में कठिनता का अनुभव करता है क्योंकि वीतराग की आज्ञा संयम का विधान करती है और उसकी वृत्तियाँ स्वच्छन्द रहना चाहती हैं। श्रज्ञानी प्राणी-वर्ग अपनी वृत्तियों पर अंकुश रखना पसन्द नहीं करता अतः उसे वीतराग की आज्ञा अरुचिकर मालूम होती है । मिध्यात्व से मोहित होने की वजह से वह सच्चा स्वरूप नहीं समझ सकता, व्रतों में स्वयं को स्थापित करना उसके लिए कठिन
। लूखा-सूखा आहार करना, इष्ट अनिष्ट संयोगों में समभाव रखना और अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना अत्यन्त कठिन मालूम होता है। इसका कारण यह है कि यह जीव अनादिकाल से राग-द्वेष के बन्धनों में पड़ा हुआ है और इसकी वजह से अपनी स्वाभाविक दशा को भूल कर ऐसी विभाव- दशा में आ गया है कि इसे सांसारिक और इन्द्रियजन्य सुखों से मोह हो गया है और वीतराग की आज्ञा में उसे डर और शंका मालूम होती है। वीतराग के मार्ग में पौद्गतिक सुखों का त्याग करना पड़ता है और वह
कानी प्रारणी जन, सुखों में हो सथा सुख मानकर उनसे चिपका रहना चाहता है इसलिए वह वीतराग की आशा से विपरीत चलता है और स्वच्छन्द विचरण करती है। उसका यह स्वच्छन्द विचरण उसे महा भयंकरुपता देने वाला होगा । वक्ष मास तक इसी संसार में जन्म-मरण करता रहेगा और
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