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[आधाराङ्ग-सूत्रम
हुए सुन्दर से सुन्दर पकवानों का क्या परिणाम हो जाता है और कैसी विकृत वस्तु बाहर आती है ! शरीर पर धारण किये हुए वस्त्र अल्पकाल में इसके संयोग से मैले हो जाते हैं। कैसा असार यह शरीर ! कैसा इस पर मोह !! क्या इसका अभिमान !!! ..जो पुरुष इस शरीर में रहे हुए अशुचि तत्त्वों को जानता है और शरीर की आभ्यन्तर स्थितियों को जानता है कि अमुक जगह रुधिर है, अमुक जगह हड्डी है, अमुक मूत्राशय है, अमुक मलाशय है, इसी प्रकार जो जानता है कि इस शरीर के द्वार (छेद) सदा मल-प्रवाही हैं, ये हमेशा झरते रहते हैं वह बद्धिमान कदापि इस पर मोह नहीं रख सकता। एक तो वैसे ही शरीर के द्वार बहते रहते हैं और अगर कुष्टादि रोग हो तो समस्त शरीर से भी अशुचि झरती है । इसे कुत्सित, निन्द्य, अशुचि का पिण्ड और रोगों का अगार जानकर बुद्धिमान् का यह कर्त्तव्य होता है कि इस पर राग न रखकर इसका धर्माराधन में उपयोग करे । शरीर की यथार्थता को समझ कर जो इसका सदुपयोग करते हैं वे ही प्राणी सच्ची शान्ति का अनुभव करते हैं।
विवेकी प्राणियों को चाहिए कि वे अपनी आँखों के सामने शरीर के श्राभ्यन्तर स्वरूप की कल्पना करें। क्या आभ्यन्तर स्वरूप को समझ लेने के बाद भी उस पर मोह और आसक्ति रह सकती है ? कदापि नहीं! शरीर की असारता का चिन्तन करने से कामभोगों की आसक्ति कम होती है। कामभोगों की आसक्ति अल्प होने पर आत्मजागृति प्रकट होती है और आत्मजागृति होने से सच्चे शाश्वत सुख की अनुभूति होती है।
से मइमं परिन्नाय मा य हु लालं पच्चासी, मा तेसु तिरिच्छमप्पाणमावायए।
संस्कृतच्छाया-स मतिमान् परिज्ञाय मा च लाला प्रत्याशी । मा तेषु तिरश्चीनमात्मानमापादयेत्।
शब्दार्थ-से वह । मइम=बुद्धिमान् । परिन्नाय यह जानकर । लालं-लार को । पञ्चासी पुनः चूसने वाला। मा य हु=न हो । तेसु-ज्ञानादि कार्यों में । अप्पाणम् अपने आपको। तिरिच्छं विमुख । मा आवायए न करे। .
भावार्थ-बुद्धिमान् पुरुष, काम और देह के स्वरूप को भलीभांति समझ कर बालक की भांति लार को चूसने वाला-अर्थात् त्यागे हुए भोगों की पुनः अभिलाषा करने वाला न हो और ज्ञान दि कार्यों के प्रति विमुख न रहे । .. विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में त्यागियों को अपने त्यागमार्ग पर स्थिर रहने का उपदेश दिया गया है। काम-स्वरूप और देह के स्वरूप को समझ कर त्याग-मार्ग का अवलम्बन कर लेने के बाद भी त्यागी साधक के सामने अनेक प्रकार की इष्ट या अनिष्ट परिस्थितियाँ और वृत्तियाँ उपस्थित होती हैं जिनके कारण त्यागमार्ग से पतित होने की सम्भावना रहती है। ऐसी स्थितियों में साधक को अधिक सावधान रहने की
आवश्यकता होती है क्योंकि पूर्वसंयोग अति प्रबल होते हैं और वे अवसर प्राप्त कर साधना के मार्ग से स्खलित कर देते हैं। अतएव त्यागियों को ऐसे प्रसंग पर सदा जागरुक रहने का उपदेश दिया गया है।
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