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[प्राचाराङ्ग-सूत्रम्
व्रतों का पालन करता है। वही साधक जो कष्टों को सह लेता है परन्तु व्रत पालन में दोष नहीं लगने देता है, कई वार अपने श्रद्धालु भक्तों के आग्रह के वश हो जाता है और व्रत के पालन में शिथिलता कर देता है । यह वृत्ति की दूषितता है। श्रद्धालु भक्तों का आग्रह अनुकूल प्रलोभन है । साधक अनुकूल और प्रतिकूल प्रसंगों के उपस्थित होने पर भी किसी प्रकार से व्रत में नियमों में शिथिलता न आने दे यही उसकी कर्तव्यनिष्ठा है । इसी में उसकी दृढ़ता की कसौटी और नियमपालन की दृढ़ता प्रतीत होती है।
सूत्रकार कह रहे हैं कि कोई गृहस्थ मुनि को देखकर यह कहे कि "हे मुने! मैं आपके लिए अशनादि तैयार करूँगा आप कृपाकर आज मेरे घर को पावन करिएगा । कृपया अाज का भोजन मेरे यहाँ लेकर मुझे अनुगृहीत करिए" । गृहस्थ के ऐसे वचनों को सुनकर मुनि ने उसे इन्कार कर दिया कि हम मुनि अपने निमित्त तैयार किया हुअा अाहारादि नहीं ले सकते हैं । स्पष्ट शब्दों में निषेध करने पर भी वह गृहस्थ यह सोचकर कि "मैं बहुत अनुनय करके, चाटुकारी द्वारा और जबर्दस्ती भी मुनि को आहार प्रदान करूँगा" वह बहुत द्रव्य व्यय करके और जीवों का उपमर्दन करके अाहारादि निष्पन्न करता है । दूसरा कोई गृहस्थ-साधु के थोड़े-थोड़े प्राचारों को जानने वाला-मुनि को बिना पूछे ही "छल-कपट द्वारा
आहारादि निष्पन्न हो जाने के बाद मुनि को आहारादि लेने की प्रार्थना करे-अनुनय-विनय करे लेकिन साधक अपने नियमों का भङ्ग करके कदापि वह आहार नहीं ले सकता है । इस प्रकार बहुत आग्रह करने पर भी जब मुनि आहार लेने को तैयार न हो तो यह बहुत सम्भव है कि उस गृहस्थ की श्रद्वा भङ्ग हो जाय और वह यह समझ ले कि हम इतना आग्रह कर रहे हैं, चाटुकारी कर रहे हैं और ये तो ध्यान ही नहीं देते हैं, ये लोक-व्यवहार से अनजान हैं, साधु होकर भी ये इतना आग्रह रखते हैं। इस विचार से वह कुपित भी हो जाय और राजादि हो तो वे इसमें अपना अपमान समझे और उसे मारने लगे या दूसरों से यह कहे कि इसे मारो, कूटो, अवयव काट डालो, अग्नि से जलादो, इसे अग्नि में पकाओ, लूट लो, इसका सर्वस्व छीन लो, इसे जान से मार डालो, और भांति-भांति से पीड़ा दो । इस प्रकार संकट उपस्थित होने पर भी साधक अपने नियमों से विचलित न हो जाय । संकटों को अपनी कसौटी समझ कर समभाव से और धीरतापूर्वक सहन करे लेकिन वह दूषित आहार ग्रहण न करे ।
अगर सामने वाला व्यक्ति पात्र प्रतीत हो तो उसे साधु के प्राचारगोचर से परिचित करे। उसे सुन्दर रीति से उपदेश दे । परन्तु उपदेश देने के पहले यह भलीभांति अपनी प्रज्ञा से जान ले कि यह पुरुष कौन है ? किस प्रकृति का है ? किस मत को मानता है ? यह भद्रपरिणामी है या आग्रही है ? इन बातों का वि र करने पर यदि वह उपदेश देने योग्य हो तो उसे यह समझावे कि इन कारणों से साधु ऐसा
आहार नहीं ग्रहण करते हैं । अगर उपदेश का विपरीत असर होता हो तो उस समय मौन धारण करे । लेकिन किसी भी अवस्था में उस अशुद्ध आहार को ग्रहण न करे । बुद्ध पुरुषों का यह पुनः पुनः कथन है कि साधक में इतनी दृढ़ता और निडरता होनी चाहिए कि वह अपने नियमों का पालन पहाड़ के समान अविचल होकर करे।
सूत्रकार ने अशुद्ध आहार को ग्रहण करने का इतना तीव्र निषेध किया है इसका आशय भी विचारणीय है । आहार का असर जीवन पर पड़े बिना नहीं रह सकता । संयमी पुरुष का आहार भी संयम-जन्य ही होना चाहिए। संयम-जन्य आहार ही संयमी जीवन के लिए सुन्दर असरकारक हो सकता है। अगर संयमी पुरुष असंयम-जन्य आहार का उपयोग करता है तो उसका असर खराब हुए बिना नहीं रह सकता है । संयमी पुरुष किसी पर भी भार बनकर नहीं रह सकता है इसलिए वह अपने
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