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अष्टम अध्ययन तृतीयोद्देशक ]
[५२७ कालन्ने, बालन्ने, मायने, खणन्ने, विणयन्ने, समयन्ने परिग्गहं श्रममायमाणे कालेण्टाइ अपडिने दुहरो छित्ता नियाइ ।
संस्कृतच्छाया-आहारोपचया देहाः परीषद प्रभंजिनः, पश्यत एके सर्वैरिन्द्रियैः परिग्लायमानैः, प्रोजो दयां दयते, यः सन्निधान शास्त्रस्य खेदशः स भिक्षुः कालज्ञः, मात्रशः, क्षणशः, विनयशः, समयक्षः परिग्रहममयत्वेन ( अचरत् ) कालेनोत्थायी, अप्रतिशः उभयतश्छेत्ता निर्याति ।
शब्दार्थ-देहा-शरीर। आहारोवचया आहार से बढ़ते हैं। परीसहपभंगुरा और परीषह के द्वारा क्षीण होते हैं । पासह हे शिष्यों ! देखो । एगे-कितनेक व्यक्ति । सव्विन्दिएहि= सभी इन्द्रियों से । परिगिलायमाणेहिंग्लानि का अनुभव करते हैं। श्रोए प्रोजस्वी । दयं= दया । दयइ=पालता है । जे जो । सन्निहाणसत्थस्स-संयम और कर्मों के स्वरूप का । खेयन्ने कुशल ज्ञाता होता है । से भिक्खू–वह साधु । कालन्ने अवसर को जानने वाला । बलन्नेबल को जानने वाला मायन्नेमात्रा को जानने वाला खणन्ने समय को जानने वाला | विणयन्ने= विनयज्ञ । समयन्ने शस्त्रज्ञ होकर । परिग्गहं अममायमाणे=परिग्रह पर से ममता उतार कर । कालेणुट्ठाइ कालानुकाल क्रिया करते हुआ। अपडिन्ने निदानरहित होकर | दुहोरागद्वेष को । छित्ता छेदकर । नियाइ आगे बढ़ता जाता है । ____भावार्थ-शरीर पाहार से बढ़ता और टिकता है तदपि परीषहों के आने से वह क्षीण होता है । ऐसा स्वाभाविक होते हुए भी कतिपय कातर प्राणी शरीर के ग्लान होने पर सभी इन्द्रियों से ग्लानि का अनुभव करते हैं । पराक्रमी ( ओजस्वी ) साधक परीषहों में भी दया का रक्षण करता है । हे जम्बू ! जो साधक संयम के यथार्थ स्वरूप को कुशलता के साथ समझता है वही अवसर, अपनी शक्ति, विभाग, अभ्यास समय, विनय तथा शास्त्रदृष्टि को जानता है । ऐसा साधक की ममता को छोड़कर कालानुकाल क्रिया करता हुआ, किसी प्रकार का निदान-आकांक्षा-आग्रह 1 रखता हुआ, रागद्वेष के बन्धन को छेदकर संयम के माग में विकास की पराकाष्टा पर पहुंचता है। .. ..
विवेचन-इस सूत्र में सूत्रकार साधक और सामान्य व्यक्ति के बीच में रहे हुए अन्तर को स्पष्ट करते हैं । पूर्ववत्ती सूत्र में कहा है कि ऐसा साधक दुनिया की दृष्टि में अद्वितीय मालूम होता है। इस विलक्षणता का कारण सूत्रकार यहाँ स्पष्ट करते हैं
सामान्य जनता देहपालन को अपने जीवन का ध्येय समझती है जबकि साधक देह को जीवनविकास का साधनमात्र समझता है । इस भावना के भेद के कारण एक त्याग, संयम, परिश्रम और तप को महान् दुखरूप मानता है और दूसरा इनमें ही सुख के दर्शन करता है। सामान्य वर्ग खाने के लिए जीता है। खाना ही उसने अपना ध्येय समझा होता है इसलिए वह विविध सामान-सामग्री जुटाने के लिए यत्न करता है और उसे जो कुछ प्राप्त होता है उसको अति आसक्ति के साथ-स्वाद लेता हुा
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