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उपधानश्रुताख्य नवम अध्ययन - प्रथम उद्देशकः - ( महावीर की साधना )
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गत आठ अध्ययनों में जो तत्त्वार्थ प्ररूपित किया गया है वह भूमिति की सरल रेखा के समान कल्पनात्मक या आदर्शरूप ही नहीं है अपितु व्यावहारिक है । वह सब कथन आचरणगम्य है | श्रमण भगवान् महावीर ने न केवल यह उपदेश ही प्रदान किया है बल्कि स्वयं उसका आचरण किया है। अनुभव, परीक्षण और आचरण के पश्चात् ही भगवान् वर्द्धमानस्वामी ने यह सब तत्त्वार्थ प्ररूपित किया है अतः यह अनुभूत, परीक्षित और प्राचीर्ण होने से सर्वथा उपादेय है । यह बताने के लिए इस अध्ययन में भगवान् की साधना का वर्णन किया जाता है ।
to अध्ययन में तीन प्रकार के अभ्युद्यतमरण का कथन किया गया है। उनमें से किसी भी. समाधि मरण की आराधना करने वाले मुनि को परीषह और उपसर्गों में पर्वत के समान निश्चल एवं
डोल रहने का कहा गया है। इस कठिनतम साधना की सिद्धि के लिए उस मुनि के सन्मुख ऐसा प्रेरणा देने वाला आदर्श रहना चाहिए जिससे प्रेरणा पाकर वह मुनि इस कार्य में सफलता प्राप्त कर सके । श्रमण भगवान् महावीर का तपोमय जीवन एक ऐसा प्रेरणात्मक आदर्श है जो किसी भी व्यक्ति को भयं कर से भयंकर परीषद और उपसगों में चट्टान की तरह दृढ़ रहने की शिक्षा प्रदान करता है, जो अपने साध्य की सिद्धि के लिए अन्तिम दम तक लगे रहने की प्रेरणा प्रदान करता है । अतएव इस अध्ययन में भगवान् के तपोमय जीवन का उल्लेख किया जाता है ताकि साधक उनके आदर्श को अपने सामने रख कर साधना में निश्चल एवं अडोल बन सके ।
सब तीर्थकरों का यह कल्प है कि वे अपने २ तीर्थ में श्राचारार्थ का प्ररूपण करते हुए अन्त में अपने तपः कर्म का वर्णन करते हैं। यह तपश्चर्या का विवरण 'उपधानश्रुत' कहा जाता है ।
'उप- सामीप्येन धीयते - व्यवस्थाप्यते इत्युपधानम्' ।
जो समीप में रक्खा जाय वह उपधान है । यह उपधान दो प्रकार का है- द्रव्य उपधान और भाव उपधान । शय्यादि पर सुखपूर्वक शयन करने के लिए सिर के सहारे के लिए तकिया रक्खा जाता है यह द्रव्य-उपधान है | चारित्र के लिए ज्ञान, दर्शन और तपश्चरण अवलम्बनभूत हैं अतएव ये भाव-उपधान कहे जाते हैं । यहाँ ज्ञान, दर्शन और तपश्चरण रूप भाव उपधान का अधिकार समझना चाहिए। भावउपधान का फल बताते हुए नियंक्तिकार कहते हैं:
जह खलु मइलं वत्थं सुज्भर उदगाइएहिं दव्वेहिं । एवं भाववहाणेण सुज्झए कम्मम विहं
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