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द्वितीय अध्ययन चतुर्थोद्देशक ]
[१४१
अर्थात्-जीव को संसार समुद्र में गिराने वाले मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा रूप पाँच प्रकार के प्रमाद हैं।
(१) मद्यप्रमाद-मदिरा आदि नशा लाने वाले पदार्थों का सेवन करना मद्यप्रमाद कहलाता है। मादक वस्तुओं के सेवन करने से हिताहित को विचारने की शक्ति जाती रहती है जिससे प्राणी बेभान हो जाता है। इससे अशुभ परिणामों की उत्पत्ति होती है और शुभ परिणामों का नाश होता है। इसके अतिरिक्त मदिरा में अंसख्य जीवों की उत्पत्ति होने से मदिरा पान करने वाला घोर हिंसा काभागी होता है । मदिरा-पान का दोष इस लोक और परलोक में भयंकर अनर्थों को जन्म देता है। इस लोक में होने वाले दोष तो प्रत्यक्ष ही हैं। इससे तेजस्विता, लक्ष्मी, बुद्धि और स्मरण शक्ति का विनाश होता है। मदिरा, विवेकबुद्धि का हरण कर लेती है और पापों में प्रवृत्ति कराती है। अतएव विवेकी पुरुषों को मदिरा का सर्वथा त्याग करना चाहिए । इसी तरह नशा लाने वाले अन्य पदार्थों के सेवन से भी बचना चाहिए क्योंकि मादक वस्तुएँ अनेक दोषों का पोषण करती हैं।
(२) विषयप्रमाद-स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द-रूप इन्द्रियों के विषय-सेवन को विषय प्रमाद कहते हैं। शास्त्रकारों ने विषयों को विष के समान भाव प्राणों के नाशक बताये हैं। ये विषय विषाद रूप होने से विषय कहलाते हैं। एक-एक इन्द्रिय के विषय में आसक्त हाथी, मृग श्रादि पशु-पक्षी भी अपने प्राणों से हाथ धोते हैं तो जो पांचों इन्द्रियों के विषयों के वशवर्ती हैं उनकी दुर्दशा का क्या पार है ? विषयों में ऐसी विचित्रता है कि ज्यों-ज्यों इनका सेवन किया जाता है त्यों-त्यों भोग की लालसा घटने के बदले बढ़ती ही जाती है। विषयभोग अतृप्तिकारक हैं अतएव प्राणी के चित्त को सदा व्याकुल करते रहते हैं । अतः इन्द्रियों के विषय कदापि ग्राह्य नहीं हैं ।
जो प्राणी विषयों की लालसा की जड़ को अपने मनरूपी मही से उखाड़ फेंकते है, वेही निराकुल होकर सच्चे सुख का अनुभव करते हैं। वे ही तृप्ति का अपूर्व आस्वादन करते हैं। वे ही इस लोक में सुखी हैं और परलोक में परमानन्द के पात्र बनते हैं । अतएव विषय प्रमाद का परित्याग करना चाहिए।
(३) कषाय-प्रमाद-क्रोध, मान, माया और लोभ के वशीभूत होकर विवेक को भूल जाना कषाय प्रमाद है । कषाय-प्रमाद ही संसार रूपी वृक्ष की जड़ का सिंचन करता है। क्रोध की भयंकरता, मिथ्या गर्व, माया और लोभ का विस्तार कर्मबन्धन के प्रधान कारण हैं । कहा है कि
सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्धः । (तत्त्वार्थ सूत्र) कषायों की वजह से जीव कार्माण वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है, वही बन्ध है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्मबन्धन में कषायों का मुख्य हाथ रहता है। क्रोध में उचित-अनुचित का विवेक नहीं रहता है और प्राणी पागल हो जाता है। पागल मनुष्य जैसे यद्वा तद्वा बका करता है उसी तरह क्रोधी भी अनुचित, अशोभनीय और मर्मभेदी वचन बोलता है और अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है । क्रोध में एक प्रकार का विष रहता है। क्रोध से अन्तःकरण सदा संतप्त रहता है । इसी क्रोध के आवेश में प्राणी घोर अनिष्ट कर बैठता है। कोई नदी में डूब मरता है, कोई तेल छिड़क कर आग लगा लेता है इस तरह विविध रीति से आत्महत्या कर डालता है। यह क्रोध शान्ति-सुख का बाधक और भवपरम्परा का वर्धक है अतः इसका त्याग करना चाहिए।
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