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[ श्राचाराङ्ग-सूत्रम्
श्रद्धा हो और सच्ची विचारक-बुद्धि हो तो प्रत्येक व्यक्ति धर्म का पालन कर सकता है। उपर्युक्त कथन अपने प्रमाद को ढकने का लूला बचाव मात्र है । वे धर्म के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं । उनका प्रमाद ही उसे यह कहलाता है। वस्तुतः जहाँ हृदय में भावना है, जिज्ञासा है, विचारणा है, वहाँ प्रत्येक श्रेणी में, प्रत्येक वर्ग में और प्रत्येक संयोग में धर्म का पालन शक्य है । राजा, सेनापति, रंक और श्रीमन्त सब अपने २ क्षेत्र और अपनी अपनी भूमिका में रहकर क्रमशः धर्म का पालन कर सकते हैं। हिंसा धर्म का पालन करते हुए उच्च श्रेणी का जीवन-व्यवहार चल सकता है । कई लोग यह कहते हैं कि "हम तो गृहस्थ हैं, पापों में फँसे है, हमसे श्रहिंसा का पालन कैसे हो सकता है ? यों कहकर वे अपने व्यवहार में हिंसा से, असत्य से और कई दुर्गुणों से निश्शंक होकर उनका सेवन करते हैं। परन्तु यह उनकी नादानी है | अगर a हृदय से हिंसादि को बुरा समझते हैं तो उन्हें अपने जीवन-व्यवहार से क्रमशः दूर करना चाहिए और क्रमिक धर्म का पालन करना चाहिए । प्रत्येक व्यक्ति के लिए चाहे वह किसी भी श्रेणी का हो धर्म का पालन शक्य है । अतएव पूरी श्रद्धा हो जाने के बाद प्रसाद का सेवन न करे ।
सम्यग्दर्शन हो जाने के बाद भी संसर्ग के कारण दृष्टि में विपर्ययता आ जाती है । "संसर्गजाः दोषगुणाः भवन्ति” यह उक्ति बिल्कुल यथार्थ है । संसर्ग के कारण गुण और दोष होते हैं। अगर संसर्ग अच्छा है तो गुणों की वृद्धि होती है संसर्ग बुरा है। तो दोषों की वृद्धि होती है । सम्यकवी यदि मिथ्यादृष्टियों के संसर्ग में रहता है तो उसमें भी विकार की सम्भावना रहती है क्योंकि काजल की कोठरी में कितनी ही सावधानी से जाएँ तो भी काजल का थोड़ा-सा भी दाग लगे बिना नहीं रह सकता है। अतएव मिध्यादृष्टियों के संसर्ग से बचना चाहिए। उनके संसर्ग में कदाचित् आना पड़े तो अपने सम्यक्स्व के सामर्थ्य को सदा प्रकट करता रहे। मिथ्यात्व कहीं न आ जाय इसके लिए सदा सावधान रहे। जिस तत्त्व को एक बार समझदारी पूर्वक अङ्गीकार किया है उस तत्त्व को प्राणान्त तक नहीं त्यागना चाहिए । कतिपय मतावलम्बी किन्हीं संयोगों में व्रतादि ग्रहण कर लेते हैं और फिर दण्ड-कमण्डल गुरु को सौंपकर व्रतों का त्याग कर देते हैं । इस प्रकार नहीं करना चाहिए। लिए हुए व्रतों का पालन सदा दृढ़ता के साथ करना चाहिए | प्राणान्त कष्ट के होने पर भी गृहीत धर्म का त्याग न करना चाहिए। गीता में भी कहा है
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।
अर्थात्-अपने धर्म का पालन करते हुए मर जाना श्रेयस्कर है परन्तु पर धर्म का आश्रय नहीं लेना चाहिए। परवर्म भयङ्कर है। इस वाक्य में स्वधर्म और परधर्म का अर्थ बाहर दिखाई देने वाले सम्प्रदाय, मजहब और पन्थ से नहीं है परन्तु स्वधर्म का अर्थ आत्म धर्म है और परधर्म का अर्थ जड़धर्म है । अपने कर्त्तव्यों का पालन करना आत्म-धर्म है। अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हुए यदि मृत्यु हो जाय तो वह श्रेयस्कर हैं किन्तु कर्त्तव्य का त्याग करना अच्छा नहीं है इसलिए सूत्रकार फरमाते हैं कि सम्यग्दर्शन start करके उसका त्याग नहीं करना चाहिए।
साधक के पतन का कारण पदार्थों के प्रति मोह का जागृत होना है। इसलिए सूत्रकार यह बताते हैं कि दिखने वाले रंग-राग में साधक वैराग्यभाव धारण करे। रंग-राग को देखकर उनके प्रति अपने भावों को श्रकृष्ट न करे । अच्छे शब्द, मनोज्ञ, रूप, सुरभि गन्ध, सुस्वाद रस और मृदु स्पर्श में रागभाव और कटु शब्द, कुरूप, दुर्गन्ध, बुरा रस और कठोर स्पर्शादि में द्वेषभाव धारण न करे। सच्चा दर्शन, सच्ची दृष्टि जिसे प्राप्त हो गयी है वह साधक तो यह विचारता है कि यह सब पुद्गलों की परिणति है । इसमें राग व द्वेष का क्या प्रयोजन ? पुद्गल का स्वभाव ही ऐसा है कि जो आज शुभ और मनोज्ञ हैं।
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