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[भाचाराग-सूत्रम्
आसक्ति रूपी शैवाल का गाढ आच्छादन है उससे बाहर निकलने का मार्ग उस आसक्त जीवात्मा को प्राप्त होना कठिन है। जिस प्रकार वृक्ष शीत, उष्णता, वर्षा आदि सहन करते हुए भी अपने स्थान को नहीं छोड़ सकते हैं इसी प्रकार जीव अनेक कुलों में उत्पन्न होते हैं और विविध प्रकार के विषयों में आसक बनते हैं और उन्हें नहीं छोड़ सकते हैं । आसक्ति का दुष्परिणाम भोगना पड़ता है तब वे बेचारे करुण रुदन करने लग जाते हैं परन्तु दुख के निदान भूत अपने कर्मों से नहीं छूट सकते हैं।
विवेचन-पहिले के सूत्र में आत्मभान वाला व्यक्ति हो संयम की आराधना कर सकता है यह कहा गया है। इस पर जिज्ञासु शिष्य प्रश्न करता है कि हे गुरुदेव ! आत्मभान भूलने पर पहिले के जो संयम के संस्कार रहते हैं वे कहाँ चले जाते हैं जिससे साधक का एकदम पतन हो जाता है ? सद्गुरु देव शिष्य के प्रश्न के उत्तर में फरमाते हैं कि हे शिष्य ! जो साधक प्रात्ममान खो देता है वह बाहर के पदार्थों में आसक्ति करने लग जाता है। ऐसे आसक्त जीव के संयम के संस्कार ऐसे समय में नष्ट हो जाते हैं नीचे दब जाते हैं, उन पर आसक्ति का प्रावरण पड़ जाता है। यह बात दृष्टान्त द्वारा समझायी जाती है:
एक विशाल सरोवर है। वह शैवाल (काजी) के घन और कठोर पावरण से आच्छादित है। उस सरोवर के बीच में एक छिद्र था जिसमें से सिर्फ एक कछुए की गर्दन बाहर पा सकती थी। देवयोग से एक कछुश्रा अपने साथियों से अलग पड़ जाने से व्याकुल होता हुआ इधर-उधर अपनी गीत्रा को फेंकता हुआ उस विवर के पास आया और भवितव्यता से उसने अपनी गर्दन उस छेद से बाहर निकाली तो उसे शरदऋतु के चन्द्रमा की चांदनी से क्षीरसागर के प्रवाह के समान सुशोभित, तारागणों से जगमगायमान आकाश के दर्शन हुए। ऐसा सुहावना दृश्य देखकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ। उसके मन में यह विकल्प उठा कि मेरे सहचारी मित्रों ने और मैंने पहिले कभी ऐसा सुहावना दृश्य नहीं देखा। कैसा अच्छा हो यदि मैं उनको लाकर यह स्वर्ग के समान सुख देने वाला दृश्य दिखलाऊँ। यह संकल्प करके वह उस दृश्य का आनन्द न लेते हुए पुनः अन्दर गया और अपने मित्रों और स्वजनों को ढूंढने लगा । उनसे मिलने पर वह उनको लेकर पुनः उस विवर के पास आना चाहता है लेकिल वह विवर तो शैवाल से आच्छादित हो गया। अब वह कछुआ उस छेद को ढूँढ़ने के लिए इधर-उधर खूब भटकता है लेकिन वह छेद को नहीं प्राप्त करता है। आखिर सरोवर की विस्तीर्णता से थककर वहीं विनाश को प्राप्त हुआ । इस दृष्टान्त का अभिप्राय यह है कि यह संसार एक विशाल जलाशय है। इसमें जीवरूपी कछुआ है । संसार रूपी जलाशय कर्मरूपी घन शैवाल से आच्छादित है । भवितव्यता नियोग से कर्म शैवाल में एक छोटासा छेद हो गया (अकामनिर्जरा करते हुए पुण्यनियोग से ऐसा होता है) जिससे मनुष्य क्षेत्र, सुकुल में
उत्पत्ति और सम्यक्त्वरूपी सुन्दर नभस्तल के दर्शन हुए। ऐसा होने पर ज्ञातिजन का अथवा विषयोपभोग . का मोह जागृत होने से उस सम्यक्त्व का अानन्द न लेकर यह जीव पुनः कर्म के शैवाल से आच्छादित हो जाता है। जिस प्रकार उस कछुए ने सुन्दर आकाश के दर्शन का सुयोग मिलने पर भी ज्ञातिजनों में आसक्त होकर उसका लाभ न उठाया उसी तरह यह जीवात्मा सम्यक्त्व अथवा चारित्र को प्राप्त करके पुनः मोह के उदय से-पदार्थों के मोह से अथवा सम्बन्धियों के व्यामोह से उस संयम का अानन्द नहीं उठा सकता है और प्राप्त अवसर को गँवा देता है । यह अवसर खो देने पर फिर इस अपार संसार में ऐसा सुअवसर पुनः पुनः कहाँ प्राप्त हो सकता है ?
इसका तात्पर्य यह है कि त्यागमार्ग स्वीकार कर लेने पर भी सतत सावधानी रखने की आवश्यखाता है। पूर्व अभ्यासों का प्रभाव अनन्त जन्मों से प्रात्मा पर पड़ा हुआ है वह सहज ही एकदम नष्ट
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