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तृतीय अध्ययन तृतीयोद्देशक ]
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व चारित्र के कारण उस कर्म की दिवाल में छेद हो गया है। यह जानकर मुक्त होने वाले जीवात्मा को प्रमाद न करके उस विवर से- कैदखाने से बाहर आ जाना चाहिए। कर्मरूपी दिवाल में विवर जानकर भी यदि वह प्रमाद के कारण उस समय बाहर नहीं आता तो उसे जेलखाने में ही सड़ना पड़ता है। इस प्रकार उसका प्रमाद करना श्रेयस्कर नहीं हैं । त्याग मार्ग ने कर्मरूपी दिवाल में छेद कर दिया है। अब बाहर निकलने के लिए प्रमाद नहीं करना चाहिए ।
अथवा संधि शब्द का अर्थ टूटे हुए का मिलना भी होता है। कर्मोदय से ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप अध्यवसाय का खंडन हो गया है उसका पुनः मिल जाना भावसंधि है । यह जानकर प्रमादन करना चाहिए। अथवा संधि का अर्थ धर्मानुष्ठान का अवसर भी समझना चाहिए । धर्मानुष्ठान का अवसर प्राप्त जानकर प्रमाद का सेवन नहीं करना चाहिए ।
प्रमाद का निषेध करके सूत्रकार साधक को सब प्राणियों को अपने समान समझने का उपदेश फरमाते हैं । संसार के समस्त प्राणियों को आत्मवत् समझना चाहिए। जैसे हमें सुख प्रिय है और दुख प्रिय है इसी तरह अन्य प्राणियों को भी सुख प्रिय लगता है और दुख श्रप्रिय लगता है । जैसे हम जीवित रहना चाहते हैं वैसे ही सभी जीव जीना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता । हमें कोई मारे या पीड़ा पहुंचावे तो हमें अप्रिय लगता है उसी तरह दूसरों को भी अप्रिय लगता है । यह समझ कर किसी जीव की हिंसा न करनी चाहिए और न करवानी चाहिए। इसी तरह हिंसा को अनुमोदन भी नहीं देना चाहिए ।
जो त्यागी हैं वे सारे संसार को आत्मवत् देखते हैं । उनके हृदय में किसी भी प्राणी के प्रति द्वेष, तिरस्कार और घृणा हो ही नहीं सकती। साथ ही “यह मुझसे अधम है, मैं ऊँचा हूँ, यह हल्का है, निर्गुणी है, मैं महान और गुण सम्पन्न हूँ" यह भावना उसे कभी नहीं हो सकती। ऐसे सब को आत्मोपम समःझने वाले त्यागी दुनियाँ में सुख की सरिता बहाते हैं और दुख रूपी कचरे को वहा देते हैं । वे अपने आपको एक छोटी-सी सरिता समझते हैं और दुनियाँ को समुद्र समझ कर उसमें अपना अस्तित्व मिला देते है । वे अपना व्यक्तित्व संसार को समर्पण कर देते हैं । वे संसार के प्राणियों को अपने से भिन्न नहीं मानते और अपने को उनसे भिन्न नहीं समझते । यही कारण है कि सारी वसुधा उनका कुटुम्ब बन जाती है । "मैं और मेरापन " जैसी कोई चीज उनके खयाल में नहीं होती। सरिता समुद्र में मिलने पर अपनापन पृथक् नहीं रखती वरन् समुद्र में अपना अस्तित्व मिटा देती है और अपने मिठास को भी मिटा देती है । वह समुद्र से भिन्न नहीं रहती । उसी प्रकार ऐसा साधक विश्व के प्राणियों में ऐसा मिल जाता है कि उसके लिए स्व और पर का भेद शेष नहीं रहता । “मेरा और तेरा, मैं मैं तू तू" सब मिट जाता है । वह विश्वमय हो जाता है और विश्व तद्रूप हो जाता है। ऐसे समभावी दुनियाँ के लिए वरदान रूप हैं । वे दुनिया के दुख में दुखी होते हैं और उसके कल्याण के लिए यत्न करते हैं। वे दुनियाँ के दुख में अपना दुख भूल जाते हैं । ऐसे समभावी साधक ही अपने सिद्धि-साध्य को सम्पन्न करते है । वस्तुतः वे ही त्यागी और तत्त्वदर्शी हैं। गीता में कहा है:
आत्मौपम्येन भूतेषु यः पश्यति स पश्यति ।
विश्व को कुटुम्ब मानने वाला साधक कदापि हिंसक नहीं हो सकता। वह अहिंसा का अवतार होता है । उसके अन्तःकरण में प्रेम और मैत्री का अखण्ड स्रोत प्रवाहित होता रहता है। सूक्ष्म से सूक्ष्म . कीट भी समान रूप से उसकी मैत्री का और प्रेम का पात्र है।
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