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[प्राचाराग-सूत्रम् पीड़ित हो रहे हैं इसलिए विवेकी-साधु कामना के वश न हो और संयम में सावधान रहे । असंयम में भय है । संयम में भय नहीं है । अतः संयम से भयभीत न होता हुआ सदा उसमें लीन बना रहे ।
अविवेकी और हिंसक वृत्ति वाले व्यक्ति पापकों को करते हुए नहीं डरते हैं । इससे अविवेक और हिंसकवृत्ति पाप एवं दुख के कारण हैं यह बताया गया है । जिसने इन पापकों का त्याग कर दिया है
और क्रोधादि कषायों पर विजय प्राप्त की है वह मोहनीय कर्म को दूर करके संसार सन्तति को तोड़ देता है । यह कर्मबन्धन से मुक्त होकर सिद्ध-बुद्ध हो जाता है।
कायस्स वियाघाए एस संगामसीसे से हु पारंगमे मुणी, अविहम्ममाणे फलगावयट्ठी कालोवणीए कंखिज कालं जाव सरीरभेउ त्ति बेमि ।
संस्कृतच्छाया-कायस्स व्याघातः एष सझामशीर्षम् स पारगामी मुनिः अविहन्यमानः फलकवदवतिष्ठते कालोपनीतः काक्षेत् कालं यावत् शरीरमेदः, इति ब्रवीमि ॥
शब्दार्थ-कायस्स वियाघाए शरीर-नाश के भय पर विजय पाना । एस संगामसीसे यही संग्राम का अग्रभाग है। से हु पारंगमे मुणीवही संसार का पार पाने वाला मुनि है। अविहम्ममाणे कष्टों से नहीं डरते हुए । फलगावयट्ठी लकड़ी के पाटिये की तरह अचल रहते हुए। कालोवणीए मृत्यु का समय आने पर । जाव सरीरभेो जब तक शरीर जीव से भित्र न हो जाय तब तक । कालं कंखिज-मृत्यु का स्वागत करने की अभिलाषा रक्खे ।
भावार्थ-देह-नाश के भय पर विजय प्राप्त करना यह (आत्मिक ) संग्राम का अग्रभाग है । जो मुनि मृत्यु से घबराता नहीं है वही संसार का पार पा सकता है । मुनि साधक आने वाले कष्टों से नहीं डरते हुए लकड़ी के पाटिये की तरह अचल रहे और मृत्यु काल आने पर जब तक जीव और शरीर भिन्न २ न हो जाय तब तक मृत्यु का स्वागत करने के लिए सहर्ष तैयार रहे । ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में आध्यात्मिक वीरता की कसौटी बताई गई है। जिस प्रकार बाह्य वीरता की कसौटी रण-मैदान के अग्र मोरचे पर होती है उसी तरह अात्मिक वीरता की कसौटी मृत्युकाल के उपस्थित होने पर होती है । जिस तरह सञ्चा शूरवीर विरोधी के शास्त्रास्त्रों के प्रहार की परवाह न करता हुआ संग्राम के अग्रभाग पर डटा रहता है उसी तरह आध्यात्मिक वीर भी अन्तरङ्ग शत्रुओं के साथ युद्ध करता हुआ शरीर की परवाह न करता हुआ दृढ़ता के साथ मैदान में डटा रहता है । बाह्य वीरता में किसी प्रकार के प्रलोभन या आकांक्षा का आवेश रहता है परन्तु आत्मिक वीरता में किसी प्रकार का प्रलोभन या कामना नहीं रहती। प्रलोभनों और कामनाओं को पर विजय पाने के लिए ही आध्यात्मिक संग्राम में शूरवीर सेनानी झूझते हैं । यही सच्ची शूरवीरता है। ...... मुनि की साधना की कसौटी उसकी मृत्युकालीन दृढ़ता है। जिस मुनि ने अपने शरीर का मोह सर्वथा छोड़ दिया होता है वही उस समय मृत्यु का दृढ़ता से सामना कर सकता है। सचमुच वही मुनि संसार का पार पा सकता है जिसने मृत्यु के भय पर विजय पा ली है। वही मृत्युञ्जय बनकर अपना परम साध्य सिद्ध कर लेता है।
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