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[आचाराग-सूत्रम्
विवेचन-जिस समय भगवान महावीर का जन्म हुआ उस समय की परिस्थिति बड़ी विषम थी। चारों तरफ हिंसा और पाप का साम्राज्य था । धर्म के नाम पर पाखण्ड की पूजा होती थी। थोथे क्रियाकाण्डों में ही धर्म सीमित था । यज्ञों में पशुओं की बलि दी जाती थी। जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत चरितार्थ होती थी । निर्बलों की पुकार सुनने वाला कोई नहीं था। धर्म का स्वरूप विकृत हो चुका था। अहिंसा का दिवाला और हिंसा का बोलबाला था । ऐसी परिस्थिति भगवान के सामने थी। अतः उन्होंने अपने प्रबल पुरुषार्थ के द्वारा अहिंसक क्रान्ति करने का निश्चय किया। हिंसा के विकार को दूर करने के लिए उन्होंने अहिंसा का अवलम्बन लिया। अहिंसा में ही उन्हें उस विषम परिस्थिति का हल (समाधान) दिखाई दिया। अतः उन्होंने अहिंसा को अपनाया, उसका गहराई से चिन्तन किया, उसे अपने आचरण में उतारा और अन्त में विश्व भर में प्रचार किया। यही कारण है कि भगवान के शासन में, सूत्र में, प्राचार में और व्यवहार में अहिंसा ओत-प्रोत है। भगवान् ने जनता को उपदेश दिया कि तुमने पञ्चेन्द्रियत्व पाया है, स्थूल और समर्थ शरीर पाया है तो इसके मद में दूसरे सूक्ष्म और निर्बल प्राणियों को पीड़ा न दो। यह याद रखना चाहिए कि किसी समय तुम इनकी योनि में आ सकते हो और ये सूक्ष्म प्राणी तुम्हारे जैसी स्थूल और समर्थ योनि में पा सकते हैं। त्रस प्राणी कर्मवश स्थावर हो सकते हैं और स्थावर प्राणी कर्म के कारण त्रसरूप उत्पन्न हो सकते हैं । प्राणियों का यह स्वभाव है कि वे अपने कर्म के अनुसार सब योनियों में उत्पन्न हो सकते हैं। ऐसा कहा गया है कि इस संसार में ऐसा एक भ प्रदेश नहीं है जहाँ जीव ने अनेक बार जन्म-मरण न किया हो । कहा भी है
रंगभूमिन सा काचिच्छुद्धा जगति विद्यते ।
विचित्रैः कर्मनेपथ्यैर्यत्र सत्वैर्न नाटितम् ॥ इस संसार की नृत्यशाला में ऐसी कोई भी रङ्गभूमि खाली नहीं है जहाँ विचित्र कर्मरूपी पर्दे की ओट में जीवों ने नृत्य न किया हो । तात्पर्य यह है कि प्रत्येक जीव ने अनेक बार प्रत्येक योनि में जन्म लिया है। यह जानकर त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा से बचना चाहिए ।
भगवान् ने उपधि (परिग्रह) को कर्म-बन्धन का मूल माना है । यही संसार की जड़ है। उपधि के बन्धन को तोड़ने से कर्म का बन्धन टूट जाता है। कर्म के इस भेद को जानकर भगवान ने परिग्रह,
और उसके उपादान पाप का सर्वथा परित्याग किया। परिग्रह कर्मबन्ध का मूल है यह पहले प्रतिपादित किया जा चुका है।
दुविहं समिञ्च मेहावी किरियमक्खायऽणेलिसं नाणी।
आयाणसोयमइवायसोयं जोगं च सव्वसो णचा ॥१६॥ अइवत्तियं अणाउट्टि सयमन्नेसि प्रकरणयाए।
जस्सित्थित्रो परिनाया सव्वकम्मावहा उसे अदक्खु ॥१७॥ - संस्कृतच्छाया-द्विविधं समेत्य मेधावी क्रियामाख्यातवाननीदृशीं मानी ।
आदानस्रोतोऽतिपातस्रोतो योगच सर्वशो ज्ञात्वा ॥१६॥ प्रतिपातिकामनाकुट्टिम् स्वयमन्येषामकरणतया । यस्य स्त्रियः परिशाताः सर्वकम्मावहास्तु सोऽद्राक्षीत्॥१७॥
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