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तृतीय अभ्ययन द्वितीयोदेशक ]
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शब्दार्थ-से-वह अज्ञानी प्राणी । हासमासज-हँसी विनोद में आसक्त होकर । हंता अवि आणियों का वध करके भी। नंदीति-आनन्द । मन्यते मानता है । बालस्य ऐसे अज्ञानी की । संगेन संगति से | अलं-बचना चाहिए । अप्पणो वेरं इस प्रकार हिंसा से अपना अन्य आत्मा के साथ वैरभाव । वड्ढेइ बढ़ाता है।
भावार्थ-अज्ञानी पुरुष हास्यविनोद में आसक्त होकर हिंसा करने में आनन्द मानते हैं। ऐसे अज्ञानियों की संगति से सदा बचना चाहिए क्योंकि ऐसे हास्यप्रसंग से अनेक प्राणियों के साथ आत्मा का वैर-भाव बढ़ जाता है।
विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में बाल जीवों की संगति का त्याग करने का कहा गया है । शास्त्रकार ने बाल का लक्षण इस प्रकार फरमाया है-हिंसादि अकर्त्तव्य कमों में दत्तचित्त रहने वाला, इन्द्रियों के क्रीतदास, विषयलोलुप, धर्म-मार्ग से प्रतिकूल चलने वाले और सद् असत् के विवेक से शून्य पुरुष बाल कहलाते हैं । ऐसे बाल जीवों की संगति से आत्मा का पतन होता है क्योंकि संगति का असर पड़े बिना नहीं रह सकता है। बाल जीवों की संगति से सदैव अनिष्ट परिणाम आते हैं। उनकी संगति करने से भद्र परिणाम वाले प्राणी भी उन्हीं जैसे बाल बन जाते हैं अतः उनकी संगति से बचना चाहिए !
___ वाल प्राणी की कितनी अज्ञानता है कि वह अपने मनोविनोद के लिए अन्य प्राणियों की हिंसा करता है और ऐसा करने में आनन्द का अनुभव करता है । हिंसा का मूल अगर शोधा जाय तो मालूम होता है कि प्रमाद और आसक्ति ही इसके मूल हैं । प्रमादी और आसक्त प्राणी की क्रियाएँ कर्म-बन्ध करने वाली होती हैं। ज्यों ज्यों प्रमाद और आसक्ति बढ़ती जाती है त्यों त्यों चेतनता दूर होकर जड़ता आती जाती है । जड़ता के बढ़ने से कठोरता आती है जिससे अन्य प्राणियों का वध करने पर भी मजा मालूम होता है और दूसरों के दुख में सुख मालूम होता है। ऐसे क्रूर मनुष्य वस्तुतः बाल हैं। वे कहते हैं कि ये प्राणी तो शिकार के लिए ही बनाये गये हैं। यों कहकर वे उनके वध में प्रवृत्त होकर प्रसन्न होते हैं तथा बिना संकोच के पाप करते हैं । इस प्रकार हिंसा करके वह जिन प्राणियों का हनन करता है, उनके साथ वैरानुबन्धी कर्म बाँधता है जिसके कारण भव-भवान्तर में दुख का भागी होना पड़ता है। वैर की परम्परा अनेक भवों तक चालू रहती है। जिस प्रकार "समराइच्च कहा" में गुणसेन ने अग्निशर्मा का उपहास किया उसका फल लगातार नव भवों तक वैर बढ़ने के रूप में हुआ। ऐसे हास्य-प्रसंगों से बचना चाहिए । अज्ञानियों का संसर्ग वर्जनीय है।
तम्हाऽतिविजो परमंति णचा, प्रायंकदंसी न करेइ पावं । संस्कृतच्छाया-तस्मादतिविद्वान् परममिति ज्ञात्वा, आतंकदर्शी न करोति पापम् ।
शब्दार्थ-तस्मात् इसलिये । अतिविजो तत्त्वज्ञानी पुरुष । परमंति-परम मोक्ष-पद को । पञ्चा=जानकर । पार्यकदंसी-नरकादि के दुखों को जानकर । पार्व-पापकर्म । न करेइ= नहीं करता है।
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