Book Title: Acharanga Sutram
Author(s): Saubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
Publisher: Jain Sahitya Samiti

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Page 668
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir परिशिष्ट [ब] पारिभाषिक शब्द कोष अकुओभय- जिसके आचरण से किसी भी प्राणी को भय न हो ऐसा संयम । मारि गृहस्थ साधक । अगुत्त जिसने अपनी इन्द्रियाँ वश में न की हो। अणगार गृहत्यागी साधु। अपरिगणायकम्मा-जो व्यक्ति हिंसादि पापकों को न जाने और न उनका त्याग करे वह अपरिज्ञातकर्मा कहलाता है। अपरिहारिअ- शिथिलाचारी साधु को 'अपरिहारिअ' कहते हैं। प्रबोहि आत्मस्वरूप का भान न होना । या सत्य देव-गुरु और धर्म की प्रतीति न होना। असत्थ संयम का पर्यायवाची शब्द ।। आयाण- कर्मबन्धन के कारणों को श्रादान कहते हैं। ग्रहण करने योग्य सम्यग्दर्शन या चारित्र को भी आदान कहा जाता है। आयार-गोयर- साधु-साध्वी के अनुष्ठान-क्रियाकलाप को 'पायार-गोयर' कहते हैं। आरंभ जिस क्रिया से किसी प्राणी की हिंसा होती है वह क्रिया आरम्भ है। सावध क्रिया और सावध प्रवृत्ति को भी प्रारम्भ कहते हैं। बालोयणा- श्रात्मशुद्धि के लिए दोषों की विचारणा करने को आलोयणा कहते हैं। श्रावट्ट- जिसमें प्राणी जन्म-मरण रूप परिभ्रमण करते हैं वह संसार । 'पासव- जिन क्रियाओं से आत्मा में कर्मों का आगमन होता है। उग्गहण- साधु-साध्वी किसी वस्तु को ग्रहण करने के लिए उसके स्वामी की आज्ञा लेते हैं उसे 'उग्गहण' कहते हैं। उववाइ जन्म धारण करना 'उपपात' कहलाता है । आत्मा भिन्न २ गतियों और योनियों में जन्म लेता है इसलिए वह औपपातिक कहा जाता है। उवसग्ग- दूसरों के द्वारा दिये गये कष्टों को 'उपसर्ग' कहते हैं। उवहि बाह्य उपकरण आदि सामग्री को 'उपधि' कहते हैं। पसणिज- साधुओं के लिए गाह्य निर्दोष-कल्पनीय वस्तु को 'एषणीय' कहते हैं। कम्मसमारम्भ- ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्मों के उपार्जन के कारणभूत सावद्य अनुष्ठान को कर्मसमारम्भ कहते है। कसाय राग-द्वेष या क्रोध, मान, माया, लोभ रूप मानसिक विकारों को जो संसार-वृद्धि के कारण है-कषाय कहते हैं। खेयन्न क्षेत्रज्ञ-वस्तु-स्वभाव या लोकालोक का ज्ञाता । खेदज्ञ-संसार-परिभ्रमण के दुख को जानने वाला। गुण इन्द्रियों के शब्दादि विषय को 'गुण' कहते हैं । For Private And Personal

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