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५०६ ]
[आधाराग-सूत्रम् इन वादियों की यह बात सत्य सिद्ध नहीं होती। यह लोक ईश्वर का बनाया हुआ है यह प्रमाणों से सिद्ध नहीं होता। जो ईश्वर कृतकृत्य है और पूर्ण है वह पुनः सृष्टि रचना के प्रपञ्च में पड़ता है यह बात बुद्धि को मान्य नहीं होती। ईश्वर समस्त विकारों और इच्छाओं से परे है । उसे लोकनिर्माण की इच्छा कैसे उत्पन्न हो सकती है ? ईश्वर में यदि इच्छा का अस्तित्व माना जाय तो ईश्वर की ईश्वरता नष्ट हो जाती है । क्योंकि जहाँ इच्छा है वहाँ अपूर्णता है और जहाँ अपूर्णता है वहीं इच्छा है । ईश्वर तो पूर्ण है, उन्हें इच्छा का उत्पन्न होना घटित नहीं होता है । दूसरी बात यह है कि यदि ईश्वर को कर्त्ता मान लिया जाय तो उसके अन्य गुणों में त्रुटियाँ आ जाती हैं । ईश्वर समर्थ है, कृपालु है, सर्वज्ञ है, उसने दुखों से संतप्त जगत् का निर्माण क्यों किया ? उसने दुखों की सृष्टि ही क्यों की? क्यों दुनिया में रक-राव, धनी-गरीब आदि वर्गों का भेद किया ? यदि इस सृष्टि का कर्ता ईश्वर ही है तो वह सर्वज्ञ, समदर्शी और कृपालू है यह नहीं माना जा सकता है। जो इन सद्गुणों से युक्त है वह ईश्वर ऐसी दुख से संत्रस्त सृष्टि क्योंकर बनाता है ? ये प्रश्न ऐसे हैं जो ईश्वर कर्तृत्व का निषेध सिद्ध करते हैं। इस विषय की चर्चा अन्यत्र की जा चुकी है अतएव यहाँ उसका पिष्टपेषण नहीं किया जाता है।
वस्तुतः यह लोक अनादि अनन्त है। इसके निर्माण का प्रश्न ही खड़ा नहीं होना चाहिए । द्रव्यों की अपेक्षा से यह संसार अनादि है। अनादिकाल से जीव अजीव द्रव्यों की विविधता और सम्मिश्रणता से संसार का वैचित्र्य सिद्ध होता है । जड़ और चेतन का समूह लोक कहलाता है । संसार में जो अपरिमित पदार्थ दिखाई देते हैं उनका यदि वर्गीकरण किया जाय तो वे जड़ और चेतन इन दो वर्गों में ही समाविष्ट हो जावेंगे। जड़ और चेतन के सिवाय तीसरी वस्तु नहीं दिखाई देती । संयोगों की विविधता के कारण जड़ और चेतन पदार्थों के विविध रूपान्तर होते रहते हैं। कारणों की भिन्नता के कारण पदार्थ की पर्याय-अवस्थाएँ बदलती रहती हैं। ये पर्याय-परम्पराएँ अनन्तकाल तक चलती रहती है । ये पर्याय अनन्तकाल तक चलती रहने वाली है तो वे आज-कल की नहीं हो सकतीं, वे अनादिकालीन होनी चाहिए । उनका कभी श्रारंभ और अन्त नहीं होता।
जड़ और चैतन्य द्रव्य अनादिकालीन हैं और अनन्तकाल तक स्थिर रहेंगे। अतएव लोक भी अनन्त है। पर्यायों की दृष्टि से अवश्य उसकी उत्पत्ति भी होती है और नाश भी होता है परन्तु उस उत्पत्ति और विनाश के लिए न तो ब्रह्मा की आवश्यकता है और न स्वयंभू की। उसके लिए ईश्वर की भी अपेक्षा नहीं है और न किसी देव की । जड़ और चेतन पदार्थ स्वयं यह क्रिया करते रहते हैं। इस सत्य तत्त्व को न समझने के कारण ही सृष्टि के सम्बन्ध में वादियों ने विभिन्न कल्पनाओं के घोड़े दौड़ाए हैं और विविध मनमाने सिद्धान्तों का प्रणयन किया है । वस्तुतः लोक अनादि अनन्त है। द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से संसार अविनश्वर और अनन्त है अतएव अनादि भी है। पर्याय की अपेक्षा से उत्पाद विनाश होता है लेकिन वह वस्तु के आकार का ही होता है न कि मूल वस्तु का । इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि लोक के विषय में वादियों की मानी हुई बाते काल्पनिक ही हैं।
विश्व में प्रचलित वादों का निराकरण करने के लिए जैनधर्म का स्याद्वाद सिद्धान्त ही अचूक रामबाण औषध है।
सूत्रकार साधक को यह उपदेश करते हैं कि दुनिया में अनेक वादी अपने माने हुए सिद्धान्तों को ही सम्पूर्ण सत्य मानते हैं और उन्हीं का आग्रह रखते हैं। वे दूसरों के सिद्धान्तों को मिथ्या कह देते हैं
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