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[आचाराङ्ग-सूत्रम्
लेगा और फिर वह पापकर्म कोई सहयोगी साधु या गृहस्थ जान न ले इसके लिए सदा सशङ्कित रहेगा। जहाँ शंका है वहाँ संयम नहीं और प्रसन्नता भी नहीं है। सच्ची प्रसन्नता संयम में ही हो सकती है अतएव समभावरूप संयम में अल्पमात्र भी प्रमाद नहीं करना चाहिए।
प्रमाद का कारण इन्द्रियों और मन पर विजय नहीं पाना है। जब तक इन्द्रियाँ और मन काबू में नहीं हैं तब तक प्रमाद नहीं जीता जा सकता है अतएव सूत्रकार ने फरमाया है कि 'आत्मगुप्त' बनो । जब तक इन्द्रियों का गोपन नहीं होता वहाँ तक वे इन्द्रियाँ और मन आत्मा को प्रमाद की ओर घसीट लेते हैं और आत्मा को पतित कर देते हैं अतः आत्मा की रक्षा के लिए इन्द्रिय और मन पर विजय पाना जरूरी है। मनोविजय और इन्द्रियविजय का काम सरल नहीं हैं । वायु के समान चञ्चल मन कानिग्रह करना कठिन है। सतत अभ्यास और वैराग्य के द्वारा ही इनपर विजय पाई जा सकती है। प्रयत्न करते हुए भी एकदम इनपर काबू नहीं हो जाता है इसलिये कई साधक घबरा कर प्रयत्न छोड़ देते हैं । इसलिये सूत्रकार ने फरमाया है कि हे साधको! धीर बनो। अधीर न बनो । धीरता से तुम इनपर विजय पा सकोगे । अधीर बनकर पुरुषार्थ न छोड़ो । सतत अभ्यास के द्वारा अवश्य मनोनिग्रह साध्य है और मनोनिग्रह हो जाने पर प्रमाद की ओर प्रवृत्ति न होगी।
'आत्मगुप्त' बनने का उपदेश देने के पश्चात् सूत्रकार अब यह बताते हैं कि संयम के पालन के लिए शरीर एक उपयोगी साधन है इसलिये संयम-रूपी यात्रा को निर्विघ्न पूरी करने के लिए शरीर-प्रतिपालन की भी आवश्यकता है। साध्य की सिद्धि के लिए साधनों की अपेक्षा रहती है। साधनों की पूर्ति के बिना साध्य सिद्ध नहीं होता। जैसे बीज में अंकुरोत्पादन की शक्ति है तो भी पृथ्वी, पानी, हवा आदि सहकारियों के बिना वह अंकुर उत्पन्न नहीं कर सकता है । उसी प्रकार आत्मा में शक्ति है तदपि संयम के पालन के लिए और कमों के बन्धन से मुक्त होने के लिए इसे शरीररूपी सहकारी की आवश्यकता रहती है।
जबतक साध्य सिद्ध न हो जाय तबतक साधनों की आवश्यकता होती है। साध्य के सिद्ध होने पर साधन छूट जाते हैं, फिर साधनों की आवश्यकता नहीं रहती। साधनों को साध्य सिद्ध होने पर छोड़ना पड़ेगा इसलिये साधनों को पहिले से ही ग्रहण नहीं करना चाहिए यह कथन योग्य नहीं है। मान लीजिये एक नदी है। उसे भुजाओं से तैरने की शक्ति नहीं है इसलिये उसे तैरने के लिए नाव का सहारा लेना पड़ता है । किनारे पहुँचने पर नाव को छोड़ देनी पड़ती है। इसलिए क्या नदी के प्रवाह को तैरने के लिए नाव का सहारा नहीं लेना चाहिए ? वैसे ही प्रवाह में कूद पड़ना चाहिए ? ऐसा करना महज़ बेवकूफी होगी। नाव का सहारा न लेने पर वह प्रवाह में बह जायगा और कहीं ठिकाना नहीं लगेगा। इसलिये भुजाओं में शक्ति न होने पर प्रवाह को तैरने के लिए नाव का सहारा लेना ही बुद्धिमानी है । इसी तरह जबतक मोक्षरूप साध्य सिद्ध न हो जाय तबतक शरीररूप साधन का सदुपयोग करना चाहिए । अन्ततः अशरीरी तो होना ही है। अशरीरी बनने के लिए संयम की आवश्यकता है और संयम के पालन के लिए शरीर की आवश्यकता है । मूर्त शरीर से मूर्त कर्मों को तोड़ने की आवश्यकता है। जैसे लोहे को काटने के लिए लोहे की छीनी और लोहे के हथोड़े की आवश्यकता होती है उसी प्रकार मूर्त्त कर्मों को तोड़ने के लिए मूर्त शरीर की प्रतिपालना को अनिवार्यता रहती है। मूर्त्त कर्मों के चले जाने पर मृत शरीर भी चला जायगा और श्रात्मा अपने स्वरूप को पालेगा।
सारांश यह है कि संयम की वृद्धि के लिए शरीर को आहारादि द्वारा पालकर इसका सम्यक् उपयोग करना चाहिए।
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