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[ आचाराङ्ग-सूत्रम्
वाले साधक को किसी प्रकार की उपाधि नहीं रहती । ऐसे साधक के लिए संसार-व्यवहार नहीं होता । वह गतियों से मुक्त हो जाता है । अर्थात् वह सच्चा आत्म-स्वरूप प्राप्त कर लेता है । अतः समदृष्टि का विकास करना साधक का सच्चा कर्त्तव्य है ।
- उपसंहार
त्याग में प्रमाद को स्थान नहीं होना चाहिए । संसार के समस्त जीवों को आत्मवत् जानकर प्रत्येक क्रिया में सदा जागृत रहना अप्रमाद है । समभाव की प्राप्ति के बिना जीवन अप्रमत्त नहीं बन सकता । जहाँ बाह्यदृष्टि है वहाँ शुद्ध समभाव नहीं रह सकता है। इसलिए समभाव की साधना अवश्य करनी चाहिए। कर्मों के विचित्र परिणाम को समभावी ही सरलता से सहता है क्योंकि वह जानता है। कि जो कर्म का कर्त्ता है उसे फल भोगना ही पड़ता है। आत्मार्थी का ध्येय सत्य ही हो सकता है। विषयों का वेग रोके बिना सत्य लक्ष्य की प्राप्ति अशक्य है । आत्मानन्द को चखने पर बाह्य दृष्टि अपने आप विलीन हो जाती है । समदृष्टि और मोक्षार्थी साधक सत्य को लक्ष्य बनाकर पूर्ण बन जाता है। ऐसा श्री सुधर्मास्वामी ने अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहा है ।
इति तृतीयोदेशकः
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