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[ आचाराङ्ग-सूत्रम्
लिए खरीदे हुए धर्म के उपकरण भी अनगार के लिए प्राय है। अकिंचन धर्म का उपासक अनगार धर्मोपकरण के भी क्रयविक्रय के प्रपंच में न पड़े यह सूत्रकार का आशय मालूम होता है। किसी भी प्रकार के क्रयविक्रय में बन्धन, परिग्रह और ममत्व आये बिना नहीं रह सकते हैं अतः इन दोषों से बचने के लिए नगर क्रयविक्रय से सदा सर्वथा अलिप्त रहे । इसी में साधु और अनगार धर्म की शोभा है।
से भिक्खू कालन्ने, बालन्ने, मायन्ने, खेयन्ने, खणयन्ने, विणयन्ने ससमयपरसमयन्ने, भावन्ने परिग्गहं श्रममायमाणे, कालाण्ट्टाइ, पडिए दुहयो छेत्ता नियाह ।
संस्कृतच्छाया--- भिक्षुः कालो बलज्ञो मात्रज्ञः क्षेत्रज्ञः क्षणको विनयज्ञः स्वसमयपरसमयज्ञो भावज्ञः परिग्रहमममीकुर्वाणः कालानुष्ठायी प्रतिज्ञो द्विधा छत्वा नियाति ।
शब्दार्थ — से भिक्खू वह साधु । कालन्ने समय को पहिचानने वाला | बालन्ने= अपनी शक्ति को जानने वाला | मायन्ने = मात्रा - प्रमाण को जानने वाला । खेयन्ने क्षेत्र को जानने वाला | खणयन्ने = अवसर को जानने वाला । वियन्ने ज्ञानादि विनय को जानने वाला । ससमयपरसमयन्ने-अपने शास्त्र और दूसरों के शास्त्रों को जानने वाला | भावन्ने = दूसरों के अभिप्राय को जानने वाला । परिग्गहं ममायमाणे = परिग्रह की ममता को दूर करने वाला । कालागुट्ठाई = यथाकाल अनुष्ठान करने वाला । अपडिए = निरासक्त होकर | दुहओ छेत्ता - राग-द्वेष को छेद कर । निया = मोक्ष मार्ग में आगे बढ़ता है ।
भावार्थ - हे जम्बू ! जो पूर्वोक्त गुण - विशिष्ट साधु होता है वह काल, बल, मात्रा, क्षेत्र, श्रवसर, ज्ञानादि विनय, स्वशास्त्र, दूसरों के शास्त्र तथा अन्य के अभिप्रायों को जानने वाला, परिग्रह की ममता को दूर करने वाला, कालानुकाल क्रिया करने वाला और निरीह ( कामनारहित ) भाव से रहकर राग-द्वेष के बन्धनों को छेदने वाला होता है और वह मोक्ष के मार्ग पर अविरल गति से बढ़ता जाता है ।
विवेचन - प्रकृत सूत्र में साधु के लिए किन किन बातों का ज्ञान आवश्यक है यह बताया गया है । गोचरी ( भिक्षा - प्रहरण ) के प्रसंग में इन गुणों का वर्णन करने का तात्पर्य यह है कि भिक्षावृत्ति के fare गृहस्थ के घर में प्रवेश करने वाले साधु के लिए यह आवश्यक है कि वह काल, बल, प्रमाण, क्षेत्र, ज्ञानादि विनय, स्वशास्त्र, परशास्त्र तथा अन्य के अभिप्राय को समझने वाला हो, परिग्रह से दूर रहता हो, कालानुकाल क्रिया करता हो और अनासक्त तथा निस्पृह हो ।
अवसर,
कालज्ञः - साधु के लिए यह आवश्यक है कि वह समय-धर्म को पहिचाने । कर्त्तव्य करने का कसा उपयुक्त समय है ? किस समय कैसा बर्ताव करना चाहिए ? अभी किस प्रकार का वातावरण है ? जमाने की रफ्तार किस प्रकार की है ? इत्यादि बातें समझ कर समय-धर्म को पहचान कर क्रिया
१ छान्दसत्वाद्दीर्घत्वम् ।
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