________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
घृतीय अध्ययन तृतीयोद्देशक ]
[२५७ भावार्थ-हे पुरुष ! तेरी आत्मा को विषयमार्ग में जाते हुए रोक । ऐसा करने से तू दुखों से छूट सकेगा । हे पुरुष ! तू सत्य का ही सेवन कर क्योंकि सत्य की आज्ञा में प्रवर्तित बुद्धिमान् साधक संसार को तिर जाते हैं और श्रुतचारित्र-रूप धर्म का यथार्थ-रूप से पालन कर कल्याण प्राप्त करते हैं।
विवेचन–पहिले यह प्रतिपादन किया जा चुका है कि आत्मा की शक्ति अनन्त है और आत्मा कर्म करने और उसका फल भोगने में स्वतंत्र है। साथ ही यह भी कहा जा चुका है कि आत्मा ने कर्म के बन्धन में पड़कर अपनी स्वतंत्रता गुमा दी है और वह इन्द्रिय एवं मन का गुलाम बन गया है। इन्द्रियाँ और मन उसे विषयों की ओर खींच लेते हैं जिससे आत्मा अपनी स्वतंत्रता और अपना स्वरूप खोकर जड़ता की ओर बढ़ता है।
कर्म-बद्ध जीवात्मा यद्यपि स्वतंत्र नहीं है तो भी उसे स्वतंत्रता प्राप्त हो सकती है। यह स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए अपने अन्तर में डुबकी मारने की आवश्यकता है। इन्द्रियों के ऊपर बाह्य जगत् की जो क्रियाएँ होती हैं उनसे अपना स्वरूप भिन्न है ऐसा बराबर अनुभव होना चाहिए। इसका अर्थ ऐसा है कि हमें आत्माभिमुख बनना चाहिए और आत्माभिमुख होकर ही जीवन बिताना चाहिए । बाह्य पदार्थों की ओर दौड़ती हुई इन्द्रियों को रोकना सीखना चाहिए। विषयों का आकर्षण और आत्माभिमुखता ये दो परस्पर विरोधी वस्तु हैं । जहाँ विषयों की आसक्ति है वहाँ आत्माभिमुखता टिक नहीं सकती। इसलिए सूत्रकार ने यह कहा है कि हे पुरुष! तू अपना निग्रह करना सीख । इन्द्रियाँ जो पदार्थ चाहती हैं उनके बिना भी काम चला लेना आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत है। जब तक मनुष्य इस तरह इन्द्रियों से परे नहीं हो जाता तब तक उसे आत्मा की सच्ची प्रतीति नहीं हो सकती।
इन्द्रिय-सुखों में आसक्ति होना कामनाओं का परिणाम है। कामनाएँ जड़ जगत् की जननी हैं। कामना संसार का पाया है। कामनाएँ इन्द्रिय-सुख में और तीव्र आवेशों में संतोष मानती हैं । हमें उनका सम्पूर्ण त्याग करना चाहिए। जब कामनाएँ दूर हो जाती हैं तब आवेश-रहित शान्त चित्त में सभी विकल्प अपने आप शान्त हो जाते हैं क्योंकि संकल्पों का कारण बाह्य-इन्द्रियों का हर्प या शोक अथवा राग और द्वेष है । यह दूर होते ही आत्मा आत्मभाव में स्थित हो जाता है। इसीलिए सूत्रकार फरमा रहे हैं कि आत्मा को विषय-संग से रोक रखो । आत्म-निग्रह करो । ऐसा करने से ही विभाव-रूप दुख छूटेगा और सहज सच्चिदानन्द स्वभाव प्रकट हो जायगा। - साधक आत्मनिग्रह करने का प्रयास करता है तब यह संभव है कि पूर्वाध्यासों ( पूर्व संस्कारों) के कारण वृत्तियाँ आत्मा को बाह्य पदार्थों की ओर आकृष्ट करें । उस समय साधक का यह कर्त्तव्य है कि वह ऐसे पूर्व संस्कारों की अधीनता न स्वीकारे और नवीन सत्यदृष्टि से अवलोकन करे। पूर्वसंस्कारों के कारण यदि आत्मा वृत्तियों का साथ दे तो गहरा पतन अवश्यंभावी है। क्योंकि इससे वे संस्कार अधिक दृढ़ बनते हैं और ज्यों-ज्यों पूर्व व्यास दृढ़ होते हैं त्यों-त्यों राग-द्वेष बढ़ता है और संसार की वृद्धि होती है। अतएव साधक का कर्तव्य है कि जब पूर्वाध्यास अपना प्रभाव दिखाने लगें तब सत्यदृष्टि से
आत्मस्वरूप का चिन्तन करे और सत्य की ओर प्रवृत्ति करे ताकि उन संस्कारों का प्रभाव क्रमशः क्षीण होता चला जाय।
सूत्रकार ने फरमाया है कि विषय-संग से निवृत्त होकर सत्य की ओर प्रवृत्ति कर । सत् का अर्थ है "होना” अर्थात्-जो वस्तु का सच्चा स्वरूप है तद्रूप होना । वस्तु के बाह्य औपाधिक रूप को न देखकर
For Private And Personal